अगर अतीत विभाजनकारी था तो इस फैसले ने भारत के लिए एक नए दृष्टिकोण का मार्ग प्रशस्त किया है जिसमें देश के युवाओं की अपेक्षाओं को भी महसूस किया गया है. सबसे अच्छी बात यह है कि इस फैसले से किसी भी पक्ष को बहुत ज्यादा निराश होने की जरूरत नहीं होगी. यह एक बहुत ही संतुलित फैसला है जिसमें मनोविज्ञान ने भी अहम योगदान दिया इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है.
चूंकि इस फैसले ने पूरी तरह से किसी एक पक्ष का समर्थन नहीं किया है इसलिए यह अपने आप में ऐसा फैसला भी नहीं है जिस नकरा जा सके.
एक तरह की स्वभाविक शांति, और कहीं से किसी तरह के अप्रिय समाचार के न मिलने से साबित हो गया कि 1992 के बाद से भारत में युवाओं की एक ऐसी पीढ़ी आ चुकी है जो मुक्त अर्थव्यवस्था के माहौल में पले बढ़े हैं और देश में बढ़ते रोजगार के अवसरों को देखते हैं तथा जिन्हें सेंसेक्स के उतार चढ़ाव से ज्याद मतलब है. ऐसा लगता है कि इन लोगों को इससे कोई मतलब नहीं रह गया है कि बाबरी मस्जिद की जगह कोई राम मंदिर बन जाए. ऐसे युवा अब ऐसे अप्रासांगिक इतिहास से खुद को जुड़ा महसूस नहीं करते.
लेकिन 30 सितंबर 2010 के अदालती फैसले ने यह साबित कर दिया कि एक लोकतंत्र, एक समाज के रूप में हम इतनी तरक्की कर चुके हैं कि अब ऐसे मामले हमें नहीं डिगा सकते. इस फैसले के बाद यह भी साबित हो गया कि हमारा देश पुरानी बातों को भूलकर दूरअंदेशी के साथ लगातार तरक्की के पथ पर आगे बढ़ता रहेगा.