जिस खादी को महात्मा गांधी ने स्वदेशी का प्रतीक मानते हुए स्वराज का आधार स्तंभ बनाया था उस खादी ने बीते 100 बरसों में कई रंग देखे और दिनों दिन उसकी लोकप्रियता बढ़ती गई. आज खादी अंतरराष्ट्रीय मंच पर डिजाइनर स्वरूप में अपनी छटा बिखेर रही है.
गांधीवादी और स्वतंत्रता सेनानी भैरोंचंद अजमानी कहते हैं ‘स्वतंत्रता आंदोलन में जितना योगदान क्रांतिकारियों और सेनानियों का था, उतना ही योगदान खादी का था. खादी विदेशी वस्त्रों, वस्तुओं के बहिष्कार और भारत के स्वाभिमान का प्रतीक थी. स्वरोजगार के लिए खादी से बेहतर कोई विकल्प नहीं था. खादी पहनने का मतलब ही यह होता था कि देश और उसका सम्मान ही सर्वोपरि है.’
वह कहते हैं ‘महात्मा गांधी के सिद्धांतों को मानने वाले इसलिए खादी पहनते हैं क्योंकि यह बापू की पहली पसंद थी. दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद बापू ने ही भारतीयों से खादी पहनने का अनुरोध किया था ताकि लोगों में आत्मसम्मान की भावना जागे और वह ऐसा परिधान पहनें जो देश की एकता दर्शाए.’
इतिहासकार ओमप्रकाश चौरे कहते हैं ‘बापू मानते थे कि स्वदेशी के बिना स्वराज अर्थहीन होगा और अगर स्वदेशी स्वराज की आत्मा है तो खादी स्वदेशी का अहसास है. यही वजह है कि लोग खादी को क्रांति तथा विरोध का ऐसा प्रतीक मानते थे जो भारतीयता की पहचान बताता था.’
गुजरात हस्तशिल्प बोर्ड से जुड़ी फैशन डिजाइनर कमल वाडकर मानती हैं कि खादी भारतीय मौसम के अनुरूप है और इसमें कई तरह के प्रयोगों की गुंजाइश भी है. परंपरागत खादी का मूल रूप आज भी वही है, केवल प्रयोगों के तहत इसे सिल्क, उनी, पॉलिएस्टर और सूती के साथ मिला कर नए नए टैक्स्चर तैयार किए जा रहे हैं.
डिजाइनर देविका भोजवानी कहती हैं ‘खादी तो पहले से ही लाजवाब है. हमने केवल इसे नए रूप में पेश करने की कोशिश की और अंतरराष्ट्रीय मंच को यह पसंद आ गई.’ खादी के कपड़े हर मौसम के खास कर सर्दी और गर्मी के अनुकूल होते हैं. गर्मी में खादी पसीना सोख लेती है और सर्दियों में शरीर को गर्म रखती है. त्वचा को खादी से कोई नुकसान नहीं होता.