कमज़ोर याद्दाश्त कमज़ोर लोकतंत्र की पहचान होती है. किसी और को क्या याद रखते, जब शहीदों की सल्तनत में सबसे ऊंचे सिंहासन पर बैठे भगत सिंह को ही भुला दिया. सरकार ने भी और समाज ने भी. गृह मंत्रालय ने एक आरटीआई के जवाब में कहा है कि उसके पास ऐसा कोई दस्तावेज़ ही नहीं है, जो गोरी हुकूमत को हिला देने वाले उस अलबेले क्रांतिवीर को शहीद का सम्मान दे सके.
21 साल के नौजवान सीने में जब इंकलाब की आग दहकती है, मुल्क़ की राहों में रूह हो जाने को बेताब होती है जान, निगाहें तमन्नाओं के ख्वाब बुनती हैं, तब जाकर देश को मिलता है एक भगत सिंह. मुल्क के लिए क़ुर्बानी मकसद भी होता है उसका और मोक्ष का मार्ग भी.
पंजाब के बंगा गांव का वो बेटा गोरी हुक़ूमत के ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़ा हुआ एक ऐसा ख़ुदा था, जिसे अपने वतन के सिवा किसी पर ऐतबार न था.
30 अक्टूबर, 1928 को साइमन कमीशन के विरोध में जुलूस की अगुवाई कर रहे लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में उबलते हुए भगत सिंह को तबतक चैन न पड़ा, जबतक उन्होंने एएसपी सॉन्डर्स को मार नहीं डाला. ये बदलते हुए भारत की क्रांतिकारी बुनियाद थी.
सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में बटुकेश्वर दत्त के साथ बम फेंकने वाला अलबेला क्रांतिकारी, जिसने मां से आगे मातृभूमि को रखा था. भगत सिंह ने अपनी मां को चिट्ठी लिखी थी, जिसके अंश इस प्रकार हैं:
मेरी प्यारी मां,
मेरा जीवन अब परोपकार को समर्पित है. वह परोपकार है देश की आज़ादी. जबतक आज़ादी नहीं मिल जाती, न तो मुझे चैन है और न ही कोई दूसरी इच्छा.
भगत सिंह
वंदे मातरम् वंदे मातरम्
जेल में भेदभाव के ख़िलाफ़ 114 दिनों का अनशन करके भगत सिंह ने गांधी की उन धारणाओं को ध्वस्त कर दिया था कि हिंसा उनका स्वभाव है.
उस शहीदे आज़म का परिवार सरकार से मिली ज़लालत की आग में जल रहा है. एक आरटीआई के जवाब में देश के गृह मंत्रालय ने कहा है कि उसके पास भगत सिंह को शहीद मानने का कोई दस्तावेज़ नहीं है.
सरकार किसे शहीद मानती है और किसे नहीं, इसपर नीतियां कुछ भी कहती हों, लेकिन क्या ये सवाल आज़ादी के इस सालगिरह पर नहीं पूछा जाना चाहिए कि नियमों के खूंटे से बंधे हुए विरोध क्या हमें आज़ादी के अमृतकलश तक ले जा सकते थे.
क्या आज़ादी की कलकल बहती इस नदी के मुहाने पर हम अपने नायकों को भूल जाएंगे? भूल जाएंगे कि भय की छाती पर पैर रखकर छटपटाती हुई आत्माओं ने हमें ये हिंदुस्तान दिया था?