कोड़ीपक्कम नीलमेघाचार्य गोविंदाचार्य करीब आठ साल तक दलगत राजनीति से दूर रहकर फिर राजनीति में कूद पड़े हैं. कोई एक दशक पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कथित तौर पार्टी का मुखौटा बताने के बाद मुश्किलों ने उनका यूं पीछा किया कि वे पहले भाजपा में दरकिनार हुए, फिर उससे बाहर ही हो गए. उन्होंने दो साल के लिए 'उदारीकरण के प्रभावों के अध्ययन' के नाम पर छुट्टी ली थी, फिर राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन नामक संस्था गठित कर जन संगठनों के बीच काम किया. पिछले दिनों मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने ऐलान किया कि वे उनकी पार्टी के लिए काम करेंगे. विशेष संवाददाता श्यामलाल यादव ने 64 वर्षीय गोविंदाचार्य से जब 535, राजेंद्र नगर स्थित उनके दफ्तर में बात की तो उन्होंने कहा कि भाजपा अब 'भगवा कांग्रेस' बन गई है. बातचीत के अंशः
राजनीति में रहना जरूरी है, यह एहसास होने में आठ साल लग गए?
कई साल तो एक विशेष तैयारी में लगे. मैंने न रास्ता बदला है, न वापस मुड़ा हूं. जब वर्ष 2000 में अध्ययन के लिए गया था तो भी नया तरीका, नया ढांचा, नए लड़ाके की खोज में ही गया था. मेरा निष्कर्ष यही था कि समाज आगे, सत्ता पीछे तभी होगा स्वस्थ विकास, समाज पीछे, सत्ता आगे, तब तो होगा सत्यानाश. उस पर मैं अभी भी कायम हूं. बौद्धिक, रचनात्मक, आंदोलनात्मक कामों का ढांचा तैयार करना था, वह अब हो गया. तब हमने सोचा कि सज्जन शक्ति को राजनैतिक मूल्यों की ओर वापस लाने के लिए फिर से क्या किया जा सकता है.
इतने बड़े लक्ष्य के लिए आपके पास ढांचा क्या है?
कुल छह-सात सौ सक्रिय समूहों का संपर्क और संवाद है. यह बौद्धिक, रचनात्मक और आंदोलनात्मक तीनों कामों में है. गंगा और गाय के बारे में जगह-जगह इन समूहों को जोड़ा गया.
आपने राजनैतिक कदम उठाया है तो क्या ये सारे संगठन भी आपके साथ अभी हैं?
देखिए, डॉ. लोहिया कहते थे कि फावड़ा, वोट और जेल तीनों अलग बातें हैं. जो फावड़ा चला सकता है, वह जरूरी नहीं कि वोट कबाड़ ले. मैंने देखा कि सभी प्रमुख दल अमेरिकापरस्त और अल्पसंख्यकपरस्त हो गए हैं. सभी मूल्यों और मुद्दों से कट गए हैं. सत्ता की आपाधापी में गिरोह की शक्ल पा चुके हैं.
उमा भारती और मायावती की कार्यशैली में खास फर्क नहीं दिखता. उमा जी के ही साथ क्यों गए?
भाजश की अध्यक्ष ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि उनकी पार्टी राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की राजनैतिक शाखा की तरह काम करेगी. भारतपरस्त और गरीबपरस्त बनने की सहज संभावना भाजश में विचार के स्तर पर है. वे मेरा सहयोग चाहती हैं. सभी समूहों को जोड़ दें तो करीब 100 लोकसभा क्षेत्रों में नया प्रयोग संभव है.
{mospagebreak}दोबारा राजनीति में आना था तो आपने भाजपा को यह इच्छा जताई?
मेरा आकलन है कि भाजपा अब भगवा कांग्रेस बनकर रह गई है. उसमें चिंतन और चरित्र के स्तर पर कांग्रेस से उन्नीस-बीस का ही फर्क रह गया है. वह भी उतनी ही अमीरपरस्त है जितनी कि कांग्रेस. यूपीए और राजग की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है. श्री आडवाणी ने सदन के भीतर और बाहर दोनों जगह कहा है कि नीतियां समान हैं तो अधिक सहयोग करना चाहिए. एक का तंदूर कांड है तो दूसरे का शैंपेन कांड. जब ऐसा है तो भाजपा की तरफ मुड़कर देखने का सवाल ही नहीं उठता.
लेकिन आप बहुत समय तक भाजपा में रहे हैं. उसके राह से भटकने का कारण क्या है?
यह बात 1991 से साफ होने लगी थी. जो निर्णयकर्ता थे, उनकी आस्था इसमें थी कि विचारधारा और आदर्शवाद पर आधारित पार्टी कभी सत्ता में नहीं आ सकती. अटल जी और आडवाणी जी मानते थे और मानते हैं कि संसदीय व्यवस्था में संसदीय दल सर्वोपरि है, संगठन तो एक सहायक का काम करेगा. दूसरा, वे मानते हैं कि विचारधारा से समझौता हो, सत्ता में आएं यही हो सकता है. वरना सिर्फ दबाव समूह बनकर रह जाएंगे. इसलिए भगवा कांग्रेस हो जाना उनकी नियति थी.
यह सब संघ का नियंत्रण रहने के बाद भी होता गया?
देखिए, संघ का नियंत्रण तो नैतिक नियंत्रण होता है. 1999-2000 में गंभीर चर्चा हुई कि क्या किया जा सकता है. तय हुआ कि मरम्मत ही की जानी चाहिए. इसीलिए सरकार में रहने के दौरान भाजपा को जो अपयश मिला, उसके छींटे संघ पर भी पड़े.
कहा जा रहा है कि भाजश के लिए आप वैसे काम करेंगे जैसे भाजपा के लिए संघ?
संघ एक अतुलनीय और अनुपम संगठन है. उसने देश की सेवा के लिए लाखों लोग तैयार किए हैं जिनमें से 90 फीसदी लोग अभी भी सत्ता राजनीति से दूर हैं. मैं संघ से तुलना करूं, यह बहुत बचकानी बात होगी. मैं अपना काम कर रहा हूं.
आपके और संजय जोशी के प्रकरण से लगा कि भाजपा में एक वर्ग है जो संघ की रीति-नीति के लोगों को पार्टी में चलने नहीं देना चाहता?
संजय जी का मामला मुझे ज्यादा पता नहीं है. पर भाजपा में एक द्वंद्व तो है ही. वह 1970 से ही शुरू होता है. ऐसी कार्यपद्धति का विकास होना चाहिए था जिसमें सामान्य नैतिक आधार का व्यक्ति भी सीधा चल सके और व्यवस्था ऐसी हो कि उसका बचाव कर सके. यह न हो पाना भाजपा की मूल समस्या रही है. इसी से तदर्थवाद, हाइकमान संस्कृति, चमचा संस्कृति, फिर पराक्रम को छोड़कर परिक्रमा को प्रश्रय, टिकट बेचना, वंशवाद, जीतने के लिए अपराधियों को टिकट देना-ये सारे विकार भाजपा में इसीलिए आए कि चुनावी जीत ही एकमात्र लक्ष्य है.
ऐसे में भाजपा का भविष्य क्या देखते हैं आप?
एक और राजनैतिक गिरोह के नाते उसकी स्थिति बनी रहेगी. जैसे आज कांग्रेस गांधी से बहुत दूर है, समाजवादी पार्टी लोहिया से बहुत दूर है, मार्क्सवादी पार्टी मार्क्स से दूर है, बहुजन समाज पार्टी आंबेडकर और कांशीराम के सपनों से बहुत दूर है, वैसे ही, भाजपा भी डॉ. हेडगेवार और दीनदयाल से बहुत दूर हो गई है.
{mospagebreak}संघ खुद को भाजपा से अलग भी कर सकता है?
संघ का सामान्य स्वयंसेवक मुझे कहीं उदास दिखता है, कहीं उदासीन दिखता है और कहीं-कहीं आदतन प्रवाह के साथ धीरे-धीरे चलता दिखता है. कई चुनावों में संघ के स्वयंसेवकों की सक्रियता में कमी इसीलिए आ रही है.
भाजपा में दूसरी कतार के नेता काफी आगे आ चुके हैं. उनके नेतृत्व में क्या संभावनाएं दिखती हैं?
लंबे संबंधों के कारण अटल जी और आडवाणी जी में संघ के प्रति गहरा लगाव है. नए लोगों के बारे में नहीं कहा जा सकता कि उनका कौन-सा भाव स्वार्थपरक है और कौन-सा समर्पण आधारित. एक बड़ी नेत्री ने राम मंदिर आंदोलन को एक ऐसा 'चेक' बताया जो भुनाया जा चुका. एक महामंत्री हैं जो मंदी के दौरान वकालत की कमाई के तहत एक विदेशी कंपनी को सैकड़ों का फायदा दे देते हैं. पार्टी अध्यक्ष हैं जो साध्वी प्रज्ञा के बारे में एक दिन कहते हैं कि वे सिर्फ परिचित थे और शर्मिंदगी महसूस करते हैं, फिर बोलते हैं कि तीन बार नार्को टेस्ट सेहत के लिए ठीक नहीं है. गुजरात के मुख्यमंत्री हैं जो मंदिर तोड़ने को ही उपक्रम बना चुके हैं. यह सब होता है और प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखने वाले लोग चुप्पी साधे रहते हैं. इससे साख गिरती है.
आडवाणी जी ने आपको पेशकश नहीं की कि राजनीति में आना है तो भाजपा में आइए?
मेरी उनसे आखिरी बातचीत 3 अप्रैल, 2005 को हुई थी.
भाजपा उत्साहित है कि आडवाणी जी प्रधानमंत्री बनेंगे.
बहुत बड़ा तबका था स्वयंसेवकों का जो 15 अगस्त, 1998 को अटल जी के लालकिले पर झंडा फहराने के साथ सपना साकार हुआ देख रहा था. लेकिन पोकरण में बम फोड़ना ही एक उपलब्धि रही. आप कक्षा आठ में फेल हो गए और दसवीं की परीक्षा में बैठकर उत्साहित हो रहे हैं. गृह मंत्री के नाते आडवाणी और शिवराज पाटील में कोई फर्क नहीं रहा. जो गृह मंत्री के नाते कुछ नहीं कर पाए, वे प्रधानमंत्री बन भी जाएं तो क्या होगा?