ये नब्बे के दशक की बात है. बीजेपी की हर रैली में पार्टी के पहले पुरखे और जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जिक्र होता था. उनके नारे ‘पूरा कश्मीर हमारा है’, की हुंकार लगती थी. कभी नेहरू सरकार में मंत्री रहे मुखर्जी दक्षिणपंथी मिजाज के थे और कश्मीर मुद्दे पर उनकी नेहरू से बिल्कुल भी नहीं पटती थी. पचास के दशक के शुरुआत में जम्मू कश्मीर जाने के लिए परमिट लेने की जरूरत पड़ती थी. इसके अलावा उस राज्य का झंडा और संविधान भी अलग था. मुखर्जी ने नारा दिया कि एक राष्ट्र में दो विधान, दो निशान नहीं चल सकते. वह बिना परमिट लिए कश्मीर पहुंचे और गिरफ्तार कर लिए. यहां संदेहास्पद परिस्थितयों में उनकी जेल में मृत्यु हो गई. दिन था 23 जून 1953 का.
दिन होगा 23 जून 2013 का. इलाका, जम्मू कश्मीर की सीमा से जुड़ा पंजाब का पठानकोट जिले का माधोपुर कस्बा. मंच पर नजर आएंगे बीजेपी की कैंपेन कमेटी के मुखिया और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी. उनके साथ होंगे पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल. यह एनडीए की पहली रैली होगी मोदी को कमान सौंपे जाने के बाद. इसमें नरेंद्र मोदी बीजेपी की बदली हुई आक्रामक कट्टर रणनीति की पहली झलक दिखाएंगे. 1996 के बाद से ही पार्टी ने अपने उन कोर मुद्दों को किनारे कर दिया था. जिनकी बदौलत वह उत्तर भारतीय राज्यों में एक ताकत बनी थी. जिनकी बदौलत जाति से परे जाकर शहरी मतदाताओं ने उसका समर्थन शुरू किया था. ये मुद्दे थे राम मंदिर, समान नागरिक संहिता यानी धारा 370 को खत्म करना और कश्मीर में राज्य के विरोध को खत्म करना. मगर फिर पार्टी को समझ आ गया कि इन मुद्दों के चलते समाजवादी जहाज से नाव लेकर उतरे ‘सेकुलर’ दल उसके साथ नहीं आ पाएंगे. सत्ता की खातिर कुछ समझौते हुए और कुनबा बढ़ने लगा. बढ़ते बढ़ते 23 तक पहुंच गया और कोर मुद्दे किनारे हो गए. मगर फिर जब ज्वार उतरा और खाता खाली होने की कगार पर दिखा, तो बीजेपी को समझ में आ गया कि राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ इन पुराने मुद्दों को जोड़ने का फिर वक्त आ गया है.
नरेंद्र मोदी जब कश्मीर की सीमा पर इस रैली को संबोधित करेंगे, तो मकसद सिर्फ वहां मौजूद लोगों तक नहीं, बल्कि देश के उस कट्टर मध्यवर्ग तक ये नया संदेश पहुंचाना होगा. इसमें बताया जाएगा कि कश्मीर का मुद्दा केंद्र सरकार के लचर रवैये से अटका हुआ है. इसको पैदा करने वाले पंडित नेहरू हैं और उनके वंशज आज तक इसे सुलझने नहीं दे रहे. इसमें घाटी के आतंकवाद से लेकर यहां तैनात सेना की मुश्किलों पर बात की जाएगी. याद दिलाया जाएगा कि बड़े आतंकवादी हमलों में कैसे घाटी के एक खास संप्रदाय से जुड़े नौजवान पकड़े जाते रहे हैं.
ये वो सुर और तेवर हैं, जिन्हें राम मंदिर आंदोलन के बाद बीजेपी हर जगह दोहराती थी. राजनैतिक पंडित कितनी भी गर्दन घुमाएं, यह भी सत्य है कि शहरों में बीजेपी इन्हीं कड़े कट्टर से लगते तेवरों के चलते जगह बनाती गई. लोगों को लगा कि मुस्लिम तुष्टीकरण के नाम पर सरकारें सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सख्ती नहीं दिखा रही हैं. आज के हालात की बात करें, तो राम मंदिर का मुद्दा जनता को लुभाने से रहा. ज्यादातर को समझ आ गया है कि अपने राम दुरुस्त रहें तभी सब ठीक होगा. ऐसे में मध्य वर्ग दो ही चीजें चाहता है. एक, उम्दा आर्थिक माहौल, ताकि उसे नौकरी मिले. तरक्की मिले और देश का बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर दुरुस्त हो. सड़कें शानदार हों. बिजली की किल्लत न हो.दूसरी जरूरी चीज है, सुरक्षा का एहसास. जब भी आतंकवादी हमले होते हैं, ये मध्य वर्ग कसमसाने लगता है. उसे लगता है कि सरकार का ढीला रवैया ही इन सबके लिए जिम्मेदार है.
इन हालात में सामने आ रहे हैं बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी. आर्थिक मोर्चे पर उनके पास गुजरात गाथा है. वह लोगों को बताएंगे कि गुजरात कैसे तरक्की कर रहा है. वहां सड़कें कैसी हैं. बिजली कितनी आती हैं, किसान कितने समृद्ध हैं. दूसरी तरफ आएगी कानून की बात. चाहा अनचाहा सच यही है कि गुजरात दंगों के बाद बीते 11 बरसों में न तो उनके राज्य में कोई हिंसा हुई. न ही आतंकवादी घटना. बुद्धिजीवी मोदी के तरीकों पर उंगली उठाते हैं, मगर शहरी मध्य वर्ग इस बहस में पड़े बिना यही दोहराता है कि मोदी में आतंकवाद से सख्ती से लड़ने का माद्दा है. गुजरात के इस नेता को इस बात का एहसास है. तभी केंद्र सरकार के साथ हर मीटिंग के बाद वह नक्सलवाद और आतंकवाद पर गरजते हैं. केंद्र सरकार की नीति के स्तर पर नाकामियों का आलाप करते हैं. मोदी जानते हैं कि सुरक्षा और विकास, इन दो पहियों के सहारे उनकी गाड़ी सत्ता के सिंह द्वार तक पहुंच सकती है.
बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए अब छोटा परिवार हो गया है. पार्टी मुख्यालय अशोक रोड पर चल रहे एक ताजा चुटकले की मानें तो छोटा परिवार और सुखी परिवार हो गया है. गठबंधन में दो ही दल बचे हैं.शिवसेना और अकाली दल(बादल). दोनों अपने कट्टरपंथी मिजाज के लिए मशहूर हैं. उन्हें धर्म के राजनीति में मेल से कोई गुरेज नहीं. उनका ये रवैया बीजेपी को कभी भी नहीं अखरा. जिनके चलते उसे सेकुलर होने की टोपी पहननी पड़ी थी, वे साथ नहीं रहे. तो यह तय है कि अब बीजेपी अब उसी रंग ढंग में नजर आएगी, जैसे वह आडवाणी के उभार वाले युग में दिखती थी.फर्क बस इतना होगा कि तब आडवाणी महारथी थे और मोदी कोचवान, लेकिन अब आडवाणी नेपथ्य में होंगे और मोदी महारथी की मुद्रा में.