उत्तर प्रदेश में बीजेपी की नैया आगामी लोकसभा चुनाव में पार लग सकती है. एक नए सर्वे के मुताबिक, प्रदेश में बीजेपी 27 फीसदी वोटों के साथ नंबर एक पार्टी बन सकती है.
यह सर्वे सीएनएन-आईबीएन, द हिंदू और सीएसडीस ने मिलकर किया है. सर्वे के मुताबिक, सबसे ज्यादा नुकसान बीएसपी को होगा. उसके वोट पिछली बार की तुलना में 8 फीसदी घटकर 21 फीसदी रह जाएंगे. जबकि एसपी को 23 और कांग्रेस को 16 फीसदी वोट मिलेंगे.
बीजेपी की वापसी में अगड़ी जातियां अहम रोल निभाएंगी, जो इससे पहले बारी-बारी बीएसपी और एसपी के पक्ष में रह चुकी हैं. दूसरी अहम वजह होगी, अखिलेश सरकार से मोहभंग. सर्वे की मानें तो खुद एसपी के 67 फीसदी वोटर पूरी तरह या आंशिक रूप से यह चाहते हैं कि सीएम की कुर्सी अब अखिलेश के बजाए उनके पिता मुलायम को संभालनी चाहिए.
हालांकि सर्वे में शामिल 23 फीसदी लोगों ने नहीं बताया कि वे किसे वोट देंगे. इसलिए सर्वे के नतीजों को सावधानीपूर्वक लेने की जरूरत है.
बीजेपी की ओर झुकाव: है भी या नहीं
यूपी की राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि जरूरी नहीं कि सर्वे सच साबित हो. प्रदेश में बीजेपी की पीआर मशीनरी सबसे अच्छी है. कांग्रेस विरोधी लहर में वह हमेशा जीतती हुई दिखाई पड़ती है, लेकिन नतीजे कुछ और ही आते हैं.
इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि सर्व में शामिल 23 फीसदी लोगों ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं. सर्वे में छोटी पार्टियों की भूमिका को भी नजरअंदाज किया गया है. जीत में अहम भूमिका निभाने वाले मुस्लिम वोट भी इधर-उधर खिसक सकते हैं. यह बहुत हद तक इस पर निर्भर करेगा कि बीजेपी मोदी कार्ड का किस तरह इस्तेमाल करती है.
पुराने नतीजे: सीट और वोट फीसद का फर्क
उत्तर प्रदेश की राजनीति बेहद उतार-चढ़ाव वाली मानी जाती है. यहां कई बार आसानी से नजर न आने वाले फैक्टर निर्णायक भूमिका निभा जाते हैं. पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव की ओर नजर डालें तो वहां भी बहुत सारे सर्वे और विश्लेषण गलत साबित हुए हैं.
2009 लोकसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस दोनों को 18 फीसदी वोट मिले. लेकिन बीजेपी को 10 सीटें और कांग्रेस को 21 सीटें मिलीं. सबसे ज्यादा वोट फीसद बीएसपी का था, लेकिन 28 फीसदी वोटों के बावजूद वह तीसरे नंबर पर रही.
2012 के विधानसभा चुनाव में, एसपी ने 403 में से 224 सीटें अपने नाम कीं. उसका वोट फीसद था 29.13. वोट फीसदी के हिसाब से बीएसपी मुश्किल से तीन अंक पीछे थी, लेकिन उसे सिर्फ 80 सीटें मिलीं.
यह इसलिए असामान्य बात है क्योंकि 1993 के विधानसभा और 2002 के लोकसभा चुनाव के बाद प्रदेश में राजनीतिक ताकत और नेतृत्व की डोर धीरे-धीरे लेकिन निर्णायक रूप से पिछड़ी जातियों की ओर खिसकती रही है.