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गणतंत्र दिवस पर पहली बार दिखा ब्लैक कैट कमांडो का दम, जानिए खास बातें

एनएसजी कमांडो के दल ने इस परेड में जाने माने गीतकार जावेद अख्तर के लिखे गीत पर राजपथ पर मार्च पास्ट किया था. एनएसजी के मार्च पास्ट में हाईजैक की रोकथाम के लिए विशेष रूप से तैयार किये गए वाहन और अपहरण रोधी अभियान में उपयोग की जाने वाली गाड़ियों का भी इस परेड में प्रदर्शन किया गया.

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ब्लैक कैट कमांडो
ब्लैक कैट कमांडो

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देश के 68 वें रिपब्लिक डे परेड में राजपथ पर एलीट आतंकवाद रोधी बल यानि एनएसजी के दस्ते ने पहली बार हिस्सा लिया. परेड के दौरान सिर से लेकर नख तक काली पोशाक पहने और एमपी फाइव विशेष असाल्ट राइफल से लैस एनएसजी के 140 कमांडों के दस्ते ने राजपथ पर अपनी क्षमता और दक्षता का प्रदर्शन किया. इन कमांडो ने बैंड की धुन में नहीं बल्कि अपने अंदाज कदम ताल करते राजपथ पर दिखे. नख से लेकर शिख तक काली पोशाक में ढंके और पूरे शरीर में कई किस्म के रक्षा-कवचों से लैस एनएसजी के कमांडोज का एक ही नारा है- वन फॉर ऑल, ऑल फॉर वन.

वास्तव में यह कोई अतिरंजित नारा नहीं है. हकीकत यही है कि एनएसजी का एक कमांडो आतंकवादियों के पूरे एक गैंग पर भारी पड़ता है. जब लोगों ने इस एलीट फोर्स को राजपथ पर देखा तो खुशी से झूम उठे. एनएसजी को अपनी स्थापना के बाद से उत्कृष्ठ कार्यो के लिए अब तक तीन अशोक चक्र, तीन कीर्ति चक्र, तीन शौर्य चक्र, 40 सेना मेडल, 16 विशिष्ठ सेवा मेडल और कई उत्कृष्ठता सेवा सम्मान प्राप्त हो चुके हैं.

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एनएसजी कमांडो के दल ने इस परेड में जाने माने गीतकार जावेद अख्तर के लिखे गीत पर राजपथ पर मार्च पास्ट किया था. एनएसजी के मार्च पास्ट में हाईजैक की रोकथाम के लिए विशेष रूप से तैयार किये गए वाहन और अपहरण रोधी अभियान में उपयोग की जाने वाली गाड़ियों का भी इस परेड में प्रदर्शन किया गया.

ब्लैक कैट कमांडो की खासियत

@ 26/11 हमले के दौरान एनएसजी ने ही सक्सेसफुल ऑपरेशन को अंजाम दिया था.

@ पठानकोट हमले में भी एनएसजी ने सफ़ल ऑपरेशन किया था.

@ 1986 में गठन के बाद से आज तक एनएसजी कमांडो दो दर्जन से ज्यादा खतरनाक ऑपरेशनों को अंजाम दे चुके हैं.

कोई यूं ही आतंक रोधी एलीट कमांडो नहीं बन जाता, इसके लिए बहाते है पसीना

@ एनएसजी का गठन 1986 में हुआ था. इसके लिए पैरामिलिट्री और सेना के बेस्ट सोल्जर चुने जाते हैं.

@ सबसे पहले जिन रंगरूटों का कमांडोज के लिए चयन होता है, वह अपनी-अपनी सेनाओं के सर्वश्रेष्ठ सैनिक होते हैं. इसके बाद भी उनका चयन कई चरणों में गुजर कर होता है. अंत में ये सैनिक ट्रेनिंग के लिए मानेसर पहुंचते हैं तो यह देश के सबसे कीमती और जांबाज सैनिक होते हैं.

@ चुने गए सोल्जर में से 70 से 80 फीसदी जवानों की छटनी कर दी जाती है.

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@ कमांडोज की ट्रेनिंग बहुत ही कठोर होती है. जिस तरह से सिविल सर्विसेस में चुनने के लिए पहले प्रारंभिक परीक्षा होती है. फिर मुख्य परिक्षा और बाद में इंटरव्यू. कमोवेश वैसे ही एनएसजी के कमांडोज फोर्स के लिए भी कई चरणों से गुजरना होता है.

@ जरूरी नहीं है कि ट्रेनिंग सेंटर पहुंचने के बाद भी कोई सैनिक अंतिम रूप से कमांडो बन ही जाए.

@ नब्बे दिन की कठोर ट्रेनिंग के पहले भी एक हफ्ते की ऐसी ट्रेनिंग होती है. जिसमें 15-20 फीसदी सैनिक अंतिम दौड़ तक पहुंचने में रह जाते हैं.

कमांडोज का सेलेक्शन कहां से, और क्या है खासियत

एनएसजी का गठन देश की विभिन्न फोर्सेज से विशिष्ट जवानों को छांटकर किया जाता है. जानकारी के मुताबिक एनएसजी में 53 प्रतिशत कमांडो सेना से आते हैं जबकि 47 प्रतिशत कमांडो चार पैरा मिलिटी फोर्सेज- सीआरपीएफ, आईटीबीपी, रैपिड एक्शन फोर्स और बीएसएफ से आते हैं. इन कमांडोज की अधिकतम कार्यसेवा पांच साल तक होती है. पांच साल भी सिर्फ 15 से 20 प्रतिशत को ही रखा जाता है, शेष को तीन साल के बाद ही उनकी मूल सेनाओं में वापस भेज दिया जाता है.

एनएसजी की सबसे बड़ी ताकत है, इसका गहन प्रशिक्षण. किसी साधारण सैनिक को अपनी 20 साल की समूची सर्विस में जितनी ट्रेनिंग से नहीं गुजरना पड़ता है, उससे कई गुना ज्यादा किसी एसएसजी के कमांडो को अपनी तीन साल की सर्विस के दौरान ही गुजरना पड़ता है.

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एनएसजी में भी दो हिस्से हैं- एक है (एसएजी) यानि स्पेशल एक्शन ग्रुप और दूसरा है एसआरजी यानी स्पेशल रेंजर्स ग्रुप. एसएजी में मूलतः भारतीय सेनाओं से चुने गये सैनिकों को रखा जाता है और एसआरजी में भारत के विभिन्न अर्द्घ सैन्य बलों से चुने गए सैनिकों को लिया जाता है. दोनों के काम में भी थोड़ा-बहुत फर्क है. हालांकि दोनों के लिए ट्रेनिंग एक ही होती है और मौका पड़ने पर दोनों एक-दूसरे के विकल्प के तौर पर काम करते हैं. लेकिन आमतौर पर एसएजी को उन तमाम खतरनाक ऑपरेशन पर भेजा जाता है, जिसमें मौके पर ही किसी कार्रवाई को अंजाम देना होता है. इस तरह की कार्रवाइयों के केन्द्र में आमतौर पर आतंकवादी वारदातें होती हैं.

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