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'मोना डार्लिंग...' सूट-बूट वाला वो खलनायक, जिसने पर्दे की विलेन बिरादरी को बनाया सभ्य

अजीत का मानना था कि भारतीय फिल्मों के विलेन अक्सर ऊंची आवाज में बात करते थे और अपने गुर्गों को डांटते थे. लेकिन उन्होंने बतौर विलेन, डायलॉग डिलीवरी को सॉफ्ट टच दिया. जो बड़े से बड़ा क्रूर फैसला लेते हुए भी अपनी आवाज ऊंची नहीं करता था. अजीत के बारे में कहा जाता है कि वह पर्दे पर रेप सीन करने से बचते थे.

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बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता अजीत (फाइल फोटो- सोशल मीडिया)
बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता अजीत (फाइल फोटो- सोशल मीडिया)

बॉलीवुड की फिल्में खलनायकों के बिना अधूरी मानी जाती हैं. हिंदी सिनेमा में अभिनेता हामिद अली खान यानी अजीत का जन्म 27 जनवरी 1922 को हैदराबाद के गोलकुंडा शहर में हुआ था. 'मोना डॉर्लिंग' और  'सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है' उनके ये मशहूर डायलॉग आज भी लोगों की जुबान पर चढ़े हुए हैं. अजीत के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने 70 के दशक में भारतीय सिनेमा में खलनायकों की छवि को पूरी तरह से बदल कर रख दिया था.

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रुपहले पर्दे पर दिखने वाला यह शख्स पढ़े-लिखे होने के साथ ही सूट और सफेद बूट भी पहनता था और उसकी स्टाइलिश क्लार्क गैबल जैसी मूंछें होती थीं. अजीत का मानना था कि भारतीय फिल्मों के विलेन अक्सर ऊंची आवाज में बात करते थे और अपने गुर्गों को डांटते थे. लेकिन उन्होंने बतौर विलेन, डायलॉग डिलीवरी को सॉफ्टसॉफ्ट टच दिया. जो बड़े से बड़ा क्रूर फैसला लेते हुए भी अपनी आवाज ऊंची नहीं करता था.

एक समय पर बॉलीवुड में विलेन डाकू, जमींदार या महाजन हुआ करते थे. जमीनदार गरीबों की जमीन हड़प लेते थे और अपने खिलाफ जाने वालों पर अत्याचार करते थे. डाकू डकैती कर गांव के गांव को लूट लेते थे और महाजन सूद पर पैसा देकर गरीबों को पूरी जिंदगी अपना गुलाम बनाकर रखते थे. लेकिन जब 70 के दशक में अजीत विलेन बने तो भारतीय समाज बदल रहा था.

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अंग्रेजी फिल्मों का बॉलीवुड पर खासा असर दिखाई दे रहा था. तब हमारा परिचय एक नए विलेन से होता है, जो बेहद ही सभ्य अंदाज में अपनी कारगुजारियों को अंजाम देता है. वह किसी को भी कहीं भी गोली मार सकता है. शानदार और महंगे सूट पहने हुए रहता था. ऐसे होटल का मालिक होता है जहां कैसिनो चलते हैं और समाज सेवा भी करता है. सॉफ्ट से दिखने वाले इस शख्स को देखकर नहीं लगता कि यह आदमी भी इतना खूंखार किस्म का बदमाश भी हो सकता है.

अजीत का जन्म हैदराबाद में हुआ था
अजीत का जन्म हैदराबाद में हुआ था

 

अजीत का पैतृक घर उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में था, लेकिन उनका जन्म हैदराबाद में हुआ था जहां उनके पिता निजाम की सेना में नौकरी करते थे. आजादी से पहले ज्यादातर घरों में बच्चों को फिल्में देखने की इजाजत नहीं हुआ करती थी. हालांकि, अजीत के साथ ऐसा नहीं था, साथ ही उनके पास एक यह एडवांटेज थी कि उनके मामू के पास दो सिनेमा हॉल की कैंटीन का ठेका हुआ करता था, ऐसे में मामू जान के साथ जाने के लिए उन्हें रोक नहीं थी. तो वहीं से उनके मन में सिनेमा को दिलचस्पी पैदा होने लगी.

जहां एक तरप सिनेमा का सुरुर दिमाग में चढ़ रहा था तो दूसरी तरफ उनकी पढ़ाई भी जारी थी. लेकिन एग्जाम के बाद आए परिणाम के बाद से उन्हें पता चल गया कि वह पास नहीं हो सकते. उनके पेपर इतने खराब हुए थे उन्हें इस बारे में अपने वालिद से बताने से भी डर लग रहा था. फिर उन्होंने फैसला किया कि उन्हें किस्मत आजमाने के लिए बंबई (आज मुंबई) चले जाना चाहिए. फिर क्या था एक दिन अपना फैसला मां को सुनाया और उनसे कुछ पैसे लिए. अपनी किताबें बेच दीं और 133 रुपये लेकर अजीत बंबई के अपने सुहाने सफर पर निकल पड़े.

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70 के दशक में अजीत ने विलेन की इमेज को पूरी तरह से बदल कर रख दिया
70 के दशक में अजीत ने विलेन की इमेज को पूरी तरह से बदल कर रख दिया

 

एक इंटरव्यू में अजीत ने खुद बताया, "जब मैं बंबई आया तो मुझे उम्मीद थी कि सभी नामी निर्देशक जैसे केदार शर्मा, महबूब खान और वी शांताराम जैसे लोग वीटी रेलवे स्टेशन पर बाहें फैलाकर मेरा इस्तकबाल करेंगे. मेरे दिमाग में ये बेवकूफी भरी बात घर कर गई थी कि फिल्मों में काम करने के बारे में सोचने वाला शायद मैं अकेला शख्स था." जाहिर में अजीत की उम्मीदों को गहरा झटका लगा. 

शुरुआती नाकामी हाथ आने के बाद उन्होंने पठानों की भाषा पश्तों पर भी हाथ आजमाना शुरू कर दिया था. ताकि वो फिल्म स्टूडियो और बड़े फिल्म निर्माताओं के घर में सुरक्षा गार्ड के तौर पर काम करने वाले अफगान पठानों को प्रभावित कर कुछ फिल्मी हस्तियों के करीब आ सकें.

इस बीच मुंबई में उन्होंने एक जगह 5 रुपये पर किराए पर ली. उन्हीं दिनों उनकी मुलाकात मजहर खान से हुई. खान ने मुझे अपनी फिल्म 'बड़ी बात' में स्कूल टीचर का रोल दिया. मैंने बतौर 6 साल जूनियर आर्टिस्ट के तौर पर काम किया. इस दौरान मेरा नाम हामिद अली खान ही रहा." अपने इस संघर्ष के दौरान वह निर्मता-निर्देशक के. अमरनाथ के संपर्क में भी आए. उन्होंने उनके साथ 1 हजार रुपये प्रतिमाह का करार कर लिया. 

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के. अमरनाथ ने दिया था हामिद अली खान को 'अजीत' नाम

 

ये वही के. अमरनाथ हैं जिन्होंने हामिद अली खान को उनका फिल्मी नाम 'अजीत' दिया. अमरनाथ ने उन्हें शुरुआती तौर पर बड़ा ब्रेक दिया. इसी दौरान उन्होंने सलाह दी कि हामिद अली खान बहुत बड़ा है. सिनेमा में नाम हमेशा ऐसा होना चाहिए कि लोगों की जुबान पर चढ़ जाए. अजीत साहब उन दिनों काम की तलाश में थे. उन्होंने सलाह पर आव देखा न ताव, तुरंत कहा- जैसा आप तय कर दें. तब उन्होंने दो-तीन नाम सुझाए, लेकिन उन्हें अजीत पसंद आया. फिर वो अजीत के नाम से पहचाने जाने लगे और उनका यही नाम पहचान बन गया.

नायक से खलनायक की बात करें तो निगेटिव रोल में अजीत की पहली फिल्म थी सूरज. जिसमें उनके काम को काफी सराहा गया. इसी फिल्म से प्रभावित होकर लेख टंडन ने फिल्म प्रिंस के लिए उन्हें साइन किया. अजीत ने एक इंटरव्यू में माना था फिल्म 'सूरज' से एक तरह से उनका पुनर्जन्म हुआ. कई दशकों तक कैरेक्टर रोल करने के बाद 1973 में जाकर उनके खाते में दो ऐसे रोल आए जिन्हें पूरे देश में नई पहचान दे दी. ये दोनों रोल स्मगलर के थे जिसकी कहानी लिखी थी सलीम-जावेद की जोड़ी ने.

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तेजा और यादों की बारात में शाकाल की भूमिका ने उन्हें चोटी के खलनायकों की श्रेणी में ला खड़ा किया. अजीत ने जिस तरह से तेजा का रोल निभाया उसमें एक तरह का हॉलीवुड टच था. इस तरह के विलेन तब भारतीय फिल्मों में बहुत कम हुआ करते थे. हॉलीवुड में इस तरह के विलेन ज्यादा होते थे. सफेद कोट बो लगाए और लंबी गाड़ी में घूमते खलनायक. देशभर से मूर्तियां और कीमती रत्न चुराता था और उन्हें रॉबर्ट जैसे लोगों को बेच देता है

सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है
सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है

'यादों की बारात' में उनकी सफेद कलफ लगी पूरी आस्तीन की कमीजें प्रतीकात्मक हैं कि वो कभी अपना हाथ गंदा नहीं करता है. जब समील-जावेद ने फिल्म 'दीवार' लिखी तो वह मुख्य विलेन का रोल अजीत को ही देना चाहते थे. फिल्म में एक सीन यह कि अमिताभ बच्चन की महबूबा परवीन बॉबी को विलेन मार देता है. यश चोपड़ा चाहते थे, कि विलेन वह चिखे-चिल्लाए जबकि अजीत ऐसा नहीं चाहते थे, साथ ही वह अंडरवियर में भी पर्दे पर नहीं दिखना चाहते थे. इसलिए वो फिल्म का हिस्सा नहीं बन सके. बाद में यह रोल एक अन्य विलेन मदन पुरी ने निभाया था. इसी दौरान उनकी एक दूसरी फिल्म 'कालीचरन' में बोले एक डॉयलॉग 'सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है' इतना लोकप्रिय हो गया आज भी लोगों की जुबां पर है.  

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