तमाम तुलनाओं के इतर, दिलीप कुमार दिलीप कुमार हैं. वे द दिलीप कुमार हैं. हिंदी सिनेमा के महान त्रासद नायक. सिलेक्टिव इतने कि साठ साल के करियर में साठ के लगभग ही फिल्में. परफेक्शकनिस्टस ऐसे कि कोहिनूर फिल्म के महज़ एक दृश्य के लिए तीन महीने अभ्यास कर सितार बजाना सीखा. 1950 के दशक में अवाम के अवचेतन में जिस तरह से दिलीप ने पैठ बनाई थी, वह अभूतपूर्व था. अशोक कुमार को दर्शकों ने तब सराहा था, जब उन्होंने किस्मत में एक खिलंदड़ और बेपरवाह शख़्स की भूमिका निभाई थी. राज कपूर का जूता जापानी था, देव आनंद इतराते शहराती अदाकार थे और शम्मी कपूर का याहू चतुर्दिक गूंजता था. ऐसे में दिलीप ने त्रासद नायक बनने का चयन किया, या शायद नियति ने उन्हें इसके लिए चुना. एक त्रासद नायक के लिए आवश्याक तमाम भौतिक एसेट्स कु़दरत ने उन्हें मुहैया कराए थे : गहरी आंखें, लरज़ती आवाज़, चेहरे पर करुणार्त राग, घनी बरौनियां, पेशानी पर लकीरें. और एक धूप-छांही व्यक्तित्व. आत्म ध्वंस के सूफियाने रूपक का निर्वाह करने का एक अनर्जित गुरुभार. ग्रीक त्रासदियों के महान नायकों की तरह दिलीप कुमार की वह त्रासद छवि तब अवाम के दिल में गहरे घर कर गई थी : किसी अंदरूनी घाव की तरह.
दिलीप कुमार सिनेमा जगत ही नहीं, आम भारतीय जनमानस के मन में समाए हुए हैं. उनसे जुड़े हर पहलू पर लिखा यह पूरा लेख पढ़ें www.ichowk.in पर.