लद्दाख की आर्यन घाटी में एक खास कम्युनिटी बसती है, जो दिखने और तौर-तरीकों में देश के बाकी समुदायों से काफी अलग है. हल्की स्किन और हरी-नीली आंखों वाले ब्रोकपा आबादी के बारे में दुनिया का मानना है कि वे लास्ट आर्यन हैं. लगभग रोज फूलों का मुकुट और खास पोशाक पहनने वाले इन कथित शुद्ध आर्यन्स को लेकर कई दावे भी होते रहे, जैसे यूरोपियन महिलाएं शुद्ध संतानों को जन्म देने के लिए इस घाटी में आती हैं, और इनके साथ रहती हैं. लेकिन कौन थे आर्यन, और क्यों ये लगभग खत्म हो चुके?
मास्टर रेस माना गया, जिनकी कठ-काठी मजबूत
आर्यन्स कौन थे, कहां से आए थे, इसे लेकर इतिहास में कोई एक मत नहीं रहा. हालांकि दो दावे सबसे ज्यादा दिखते हैं, जिसमें उनकी शुरुआत भारत और यूरोप के इंडो-जर्मनिक इलाकों से बताई जाती है. 19वीं सदी में इस बात के उछलने की एक वजह थी, भारतीय भाषा संस्कृत और यूरोपियन भाषाओं के बीच गहरी समानता. फ्रेंच इतिहासकार आर्थर गोबिन्यू ने इस दौरान कहा कि आर्यन दुनिया की सबसे श्रेष्ठ नस्ल हैं. वे अच्छी कठ-काठी और बुद्धि वाले होते हैं इसे मास्टर रेस कहा जाने लगा.
19वीं सदी के यूरोप में बदले मायने
वैसे आर्यन शब्द संस्कृत में आर्य से बना है, जिसका मतलब है श्रेष्ठ या महान. वैसे ये कोई नस्लीय शब्द नहीं था, बल्कि मजबूत संस्कृति वाले समुदायों के लिए इस्तेमाल होता था. 19वीं और 20वीं सदी के बीच यूरोपियन जानकारों ने इसे तोड़-मरोड़कर नस्ल से जोड़ दिया. कथित मास्टर नस्ल की श्रेष्ठता का बोध बढ़ते हुए इतना फैला कि अडोल्फ हिटलर ने इसी बात को लेते हुए गैर-आर्यन्स का कत्लेआम शुरू करवा दिया था. याद दिला दें कि हिटलर खुद को आर्य नस्ल मानता था और अपने आसपास भी गैर-आर्यन्स के रहने को गलत मानने लगा. उसके आदेश पर लाखों यहूदी खत्म कर दिए गए.
क्या खत्म हो गई ये रेस
आर्यन्स किसी युद्ध या कुदरती आपदा में खत्म नहीं हुए बल्कि वक्त के साथ कथित शुद्ध और श्रेष्ठ नस्ल स्थानीय सभ्यताओं में घुलने-मिलने लगी और कई नए तरह के कल्चर और भाषाएं बनीं. तो मान सकते हैं कि कथित प्योरिटी में थोड़ी मिलावट तो हो ही गई. इस बीच लंबे समय से दावे सुनाई पड़ रहे हैं कि लद्दाख में लास्ट प्योर आर्यन अब भी बाकी हैं, जिनका बाहरी दुनिया से सीधा संपर्क नहीं.
वहां लेह से लगभग दो सौ किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में दाह-हानू गांव हैं. इन गांवों में ब्रोकपा समुदाय रहता है, जिसके बारे में शुद्धता का क्लेम आता रहा. उनका लंबा, हल्के रंग का होना, नीली-हरी आंखें और मजबूत नाक और जबड़े इस बात को बल देते हैं.
कैसे पहुंचे होंगे लद्दाख की सुदूर घाटियों में
इसपर कोई पक्की जानकारी कहीं नहीं मिलती. इंटरनेशनल जर्नल ऑफ मल्टीडिसिप्लिनरी रिसर्च एंड डेवलपमेंट में साल 2018 में एक पेपर छपा था. प्रेग्नेंसी टूरिज्म पर बात करते हुए इसमें बताया गया कि शायद ये लोग सिकंदर के वंशज हो सकते हैं, जो भारत आए थे, और उनमें से कुछ यहीं बस गए. हालांकि इसका कोई ठोस प्रमाण कहीं नहीं मिलता, लेकिन ये बात भी सच है कि वे अपने इलाके के बाकी लोगों से बिल्कुल अलग दिखते हैं और उनकी भाषा-कल्चर भी काफी अलग हैं.
लिखित दस्तावेज नहीं त्योहार-बार के
लगभग चार हजार की आबादी वाले लास्ट आर्यन्स अपनी संस्कृति और तीज-त्योहारों का लिखित ब्योरा नहीं रखते, बल्कि ये मौखिक तौर पर ही एक से दूसरी पीढ़ी में जाती है. इनकी भाषा ब्रोकस्केट है, जो इंडो-आर्यन भाषाओं की श्रेणी में आती है. उनके त्योहार सूर्य पर आधारित पंचाग के मुताबिक मनाए जाते हैं.
करते हैं कुदरत की पूजा
इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर द आर्ट्स के एक्सपर्ट विरेंद्र बंगरू ने कुछ सालों पहले इस घाटी का दौरा करते हुए माना था कि यहां रहने वाले लोग और उनकी परंपराएं पांच हजार साल से भी पुरानी हो सकती हैं. ये लोग प्रकृति और आग की पूजा करते हैं. वैसे लगभग दो सौ साल पहले यहां के बड़े हिस्से ने बौद्ध धर्म अपना लिया लेकिन पूजा वे आग, नदी और पहाड़ों की ही करते हैं. चूंकि ये हिस्सा पाकिस्तान से सटा हुआ है, लिहाजा कुछ सैकड़ा लोगों पर इस्लाम का असर भी दिखने लगा है.
काम-धाम की बात करें तो यहां अंगूर और खुबानी की खेती होती है. इन दोनों की चीजों को दुनिया की बेहतरीन किस्मों में गिना जाता है.
एक डॉक्युमेंट्री से आए चर्चा में
दुनिया से लगभग कटकर जीता ये समुदाय कुछ साल पहले एकदम से केंद्र में आ गया, जब इसपर एक डॉक्युमेंट्री बनी. साल 2007 में संजीव सिवान ने इसपर आधे घंटे की एक फिल्म बनाई, जिसका नाम था- अहतुंग बेबी- इन सर्च ऑफ प्योरिटी. अहतुंग एक जर्मन शब्द है, जो अटेंशन या ध्यान खींचने के लिए इस्तेमाल होता है.
जर्मन महिला ने किया दावा
फिल्म में दावा किया गया कि यूरोप, खासकर जर्मनी की महिलाएं यहां आकर पुरुषों से जुड़ रही हैं ताकि वे प्योर आर्यन संतानों को जन्म दे सकें. डॉक्युमेंट्री में एक जर्मन युवती कैमरे पर मानती है कि वो प्योर स्पर्म्स की तलाश में लद्दाख के इस दूरदराज इलाके तक आई. महिला ये भी कहती है कि वो अकेली नहीं, बल्कि बहुत सी जानने वालियां यहां आती रही हैं और इसके लिए वे भारी पैसे भी चुकाती हैं. डॉक्युमेंट्री के बाद कई और मीडिया संस्थानों ने भी यही बात रिपोर्ट की, जिसमें अलजजीरा भी है.
प्रेग्नेंसी टूरिज्म की बात कितनी सच है, कितनी नहीं, इसपर भारतीय एक्सपर्ट्स की सोच अलग है. इंडियाना की डेपॉव यूनिवर्सिटी में एंथ्रोपोलॉजी प्रोफेसर मोना भान कहती हैं- यूरोप के लोग ही नस्लीय शुद्धता की इस थ्योरी पर जोर देते रहे, और प्रेग्नेंसी के लिए घाटी जाने की बातें भी उनकी बनाई हुई हैं.
फिलहाल ये सच है कि लद्दाख के मंगोल फीचर से अलग दिखने वाले इस समुदाय के लोगों को गर्मियों के अलावा सालभर बेहद ठंडा मौसम और मुश्किल हालात झेलने होते हैं. हां, लेकिन शुद्ध आर्यन्स की इस थ्योरी से सुदूर बसी इस घाटी के आसपास भी टूरिज्म बढ़ रहा है.