होली शुरू होने के साथ पूरे उत्तरी भारत में शुरू होता है हुड़दंग. होली जिसके आने का इंतजार हर किशोर करता है, आखिर गांव में नई-नई भौजी से मुलाकात का एक यही मौका तो होता है. होली जिसे सांप्रदायिक सौहार्द्र का गठबंधन कहा जाता है. क्या हिन्दू, क्या मुस्लिम और क्या ईसाई. सभी होली के हुल्लड़ में खुले दिल से शामिल होते हैं. हम भी एक बार ऐसे ही हुल्लड़ का हिस्सा थे. हुल्लड़ क्या कहें. उसे ऐतिहासिक जमावड़ा कह सकते हैं, और यह जमावड़ा हुआ था काशी हिन्दू विश्व विद्यालय के कुख्यात बिरला छात्रावास में.
यहां जूनियर छात्रों द्वारा उनके सीनियर छात्रों को फेयरवेल के साथ-साथ होली मिलन के मौके पर ठंडई परोसी गई थी. पहले-पहल तो कहा गया कि जो लोग बिन भांग की ठंडई के शौकीन हों उनके लिए अलग व्यवस्था की गई है, और बाबा के बूटी से घुंटी हुई ठंडई को अलग रखा गया है. फिर क्या था सबने अबीर-गुलाल के बाद और संगीत के कार्यक्रम के बाद ठंडई का भरपूर मजा लेना शुरू किया. एक गिलास, दूसरा गिलास और फिर तीसरा. अभी तो ठंडई पीने वाले और भांग के आदती अपनी रौ में आ ही रहे थे कि वार्डन साहब आ धमके. उन्हें यह सब गंवारा न था कि कोई उनकी परमिशन के बगैर कैसे जलसा कर सकता था. खैर, जलसा चला और खूब चला. किसकी मजाल कि बिरला के अंत:वासियों का जलसा रोक दे. मगर, वार्डन के आगमन की वजह से जो एक सबसे अच्छी बात हुई कि वार्डन ने अधिकांश भांग मिली ठंडई को एहतियातन गिरवा दिया. उस समय तो सभी ने किसी तरह इस बात को बर्दाश्त किया मगर ये वाकई अच्छा हुआ. आज भी उनके लिए दिल से धन्यवाद ही निकलता है.
छात्रों के बीच के ही व्यवस्थापक मंडली ने पूरी ठंडई में भांग घोलकर सबकी जिंदगी में चरस बोने का भरपूर इंतजाम कर रखा था. ठंडई ने थोड़ी देर में ही अपना असर दिखाना शुरू किया. लोगों के ऊपरी कपड़े और अंत: वस्त्र फटने शुरू हुए. रंग-गुलाल के साथ-साथ मिट्टी-पानी कौ दौर शुरू हो गया. फिर वार्डन साहब भी क्या रुकते? और गर थोड़ी देर रुक जाते तो शायद वे भी खुल्लमखुल्ला कर दिए जाते. वे वहां से खिसक लिए. उनके छात्रावास छोड़ते ही शुरू हो गया उत्तर भारत का बहुचर्चित और बहुप्रतीक्षित जोगीरा...
क्या सीनियर और क्या जूनियर. बस नाम उछालने भर की देर होती कि जोगीरा स्पेशलिस्ट उन पर तुकबंदी शुरू कर देते. देश-दुनिया का कोई मशहूर और कुख्यात राजनेता नहीं बख्शा गया. पूरा छात्रावास भंड था. छात्रावास में ऐसे छात्रों की संख्या बहुतायत में थी जिन्होंने इससे पहले कोई नशा नहीं किया था, हम भी उन्हीं में शामिल. लेकिन यहां चक्रव्यूह बड़ा तगड़ा रचा गया था. रात होते-होते सभी अंत:वासी पगलाए घूम रहे थे. कोई अपनी महबूबा को याद कर रो रहा था तो कोई साथ-साथ रहने की मयार पूरी होने पर मायूस था. कोई बाथरूम के दाखिले को बार-बार भूल कर वहीं बौंड़िया रहा था तो कोई अपना कमरा भूल कर दूसरे कमरे का दरवाजा खटखटा रहा था. रात जवां होते-होते हम भूख की बिलबिलाहट में छात्रावास से बाहर निकले और जहां पहुंचना चाहते थे वहां पहुंचते-पहुंचते पहुंचे. वापस लौटे तो ऐसे सोए जैसे कभी सोए ही न हों. बोले तो बिरला छात्रावास की वो होली हमारी चरम होली थी, बिरला छात्रावास देश भर के हॉस्टल्स का एक प्रतीक भर है. आंखें नम हो जाती हैं उन दिनों की याद आने पर. कस्सम से बहुत याद आते हैं वे दिन और होली...
यह कहानी है बीएचयू में पढ़ने वाले एक पूर्व छात्र की, जिन्होंने अपना अनुभव हमारे साथ साझा किया है. अगर आपके पास आपकी जिंदगी से जुड़ी कोई भी खास यादें हों तो aajtak.education@gmail.com पर भेज सकते हैं, जिन्हें हम अपनी वेबसाइट www.aajtak.in/education पर साझा करेंगे.