बहुजन समाज पार्टी अपने राजनीतिक इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. बीएसपी सिर्फ 10 साल में अर्श से फर्श पर आ गई है. यूपी के 2007 विधानसभा चुनाव के बाद से लगातार बीएसपी का ग्राफ गिर रहा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में मायावती की पार्टी जीरो पर सिमट गई और 2017 के विधानसभा चुनाव में अस्तित्व की लड़ाई हार गई.
मौजूदा दौर में बीएसपी अपने बलबूते एक भी सदस्य को राज्यसभा तो छोड़िए विधान परिषद तक नहीं भेज सकती. पार्टी को दोबारा खड़ा करना सुप्रीमो मायावती के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.
1984 में बनी थी बीएसपी
कांशीराम ने दलित समाज के लिए राजनीतिक विकल्प के तौर पर 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) का गठन किया था. कांशीराम ने पार्टी को खड़ा करने में दिन रात एक कर दिया था. 1984 के चुनाव में उन्हें कोई सीट तो नहीं मिली, लेकिन पार्टी को उत्तर प्रदेश में खाद पानी मिलना शुरू हो गया.
पांच साल बाद खुला खाता
बीएसपी को पहली सफलता पार्टी बनने के पांच साल बाद मिली. 1989 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी के दो सांसद जीतने में सफल रहे. इसके बाद पार्टी ने मुड़कर नहीं देखा और सीढ़ी दर सीढ़ी बढ़ती चली गई. बीएसपी 13वीं लोकसभा के चुनाव (1999) में 14 सीटें जीतने में सफल रही. इसके बाद 2004 में उसके 17 सांसद जीते.
16वीं लोकसभा में जीरो पर सिमटी
2009 में 15वीं लोकसभा चुनाव में बीएसपी का जनाधार काफी तेजी से बढ़ा और 21 सांसद चुनाव जीतने में सफल रहे. इसके बाद पार्टी की उलटी गिनती शुरू हो गई और 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी जीरो पर सिमट गई.
1989 में 13 विधायक जीते
बीएसपी का जनाधार तो वैसे कई प्रदेशों में है, लेकिन मुख्य तौर पर उत्तर प्रदेश ही उसका बेस रहा, जहां बीएसपी सरकार बनाने में सफल रही. यूपी के 1989 के विधानसभा चुनाव में पहली बार बीएसपी लड़ी और 13 विधायक जीतने में सफल रहे. राम मंदिर आंदोलन की लहर में हुए 1991 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की एक सीट घट गई और 12 प्रत्याशी जीते.
1993 में सत्ता तक पहुंची
कांशीराम ने अपनी रणनीति में बदलाव किया और 1993 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाया. असर ये हुआ कि अगले विधानसभा चुनाव में उसके 67 विधायक जीतने में सफल रहे. इस तरह पहली बार बीएसपी सत्ता की हिस्सेदार बनी, लेकिन 1995 में यह गठबंधन टूट गया. इसके बाद 1996 में हुए विधानसभा चुनाव में भी उसके 67 विधायक चुनकर आए. बीजेपी के सहयोग से मायावती मुख्यमंत्री बनीं.
2007 में पूर्ण बहुमत के साथ बनी सरकार यूपी के 2002 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी के 98 विधायक जीतने में कामयाब रहे. लेकिन बीएसपी को सबसे बड़ी सफलता 2007 के विधानसभा चुनाव में मिली. सूबे की 403 सीटों में से बीएसपी 206 विधायकों के साथ पूर्ण बहुमत से गद्दी पर विराजमान हुई. मायावती पहली बार 5 साल के लिए मुख्यमंत्री बनीं. इससे पहले जब भी वह मुख्यमंत्री बनीं तो पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी थीं.
बीएसपी के ग्राफ में गिरावट का दौर
बीएसपी भले ही 2007 में यूपी की सत्ता पर विराजमान हो गई हो, लेकिन यहीं से उसके ग्राफ में गिरावट आना शुरू हो गया. पांच साल बाद जब 2012 में यूपी के विधानसभा चुनाव हुए तो बीएसपी 206 से घटकर सीधे 80 पर सिमट गई. इसके बाद 2017 में तो बीएसपी का ग्राफ और भी गिरा और पार्टी 19 सीटों पर सिमट गई.
बीएसपी के आधार में बीजेपी की सेंध
एक दौर था, जब यूपी में किसी पार्टी का जनाधार मजबूत माना जाता था, तो वो बीएसपी थी. लेकिन अब बीएसपी के मूल वोट में भी सेंध लग चुकी है . दरअसल 2013 में जब नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने पीएम पद का उम्मीदवार घोषित किया, उसी समय बीजेपी ने यूपी के प्रभारी पद का जिम्मा अमित शाह को सौंप दिया. इसे अमित शाह की सियासी रणनीति का परिणाम ही माना जाता है कि बीजेपी 9 सांसदों से बढ़कर सीधे 71 पर पहुंच गई.
अमित शाह ने बीजेपी को इस बुलंदी पर ले जाने के लिए सूबे में सामाजिक समीकरण साधे. मुस्लिम और यादव मतों में सेंधमारी करना मुश्किल लगा तो उन्होंने बीएसपी के मतों में सेंधमारी की. इस तरह गैर-यादव ओबीसी जो बीएसपी के साथ थे उन्हें अपने साथ मिलाया और बीएसपी का बेस रहे इस समाज के नेताओं को तोड़कर अपने साथ जोड़ने में कामयाब रहे. इसी तरह गैर-जाटव दलित समाज में भी अमित शाह ने सेंधमारी की.
सूबे के 22 फीसदी दलित मतदाताओं में से 10 फीसदी गैर-जाटव दलित हैं, जो फिलहाल बीजेपी के खेमे में हैं. यही वजह है कि बीजेपी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की. मायावती के लिए यहां से आगे का रास्ता बहुत कठिन है. लगातार दो हार के बाद उनके लिए पार्टी और कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखना आसान नहीं होगा. ऐसे में मायावती राज्यसभा से इस्तीफा देने के बाद अब यूपी में मंडल स्तर पर रैलियां कर रही हैं.