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क्या मोदी कम कर पाएंगे भारत-चीन के बीच व्यापार असंतुलन?

भारत और चीन के बीच व्यापार के मामले में चीन का पलड़ा लगातार भारी हो रहा है. क्या मोदी कम कर पाऐंगे इस असंतुलन को?

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PM मोदी और जिनपिंग
PM मोदी और जिनपिंग

भारत और चीन के बीच व्यापार के मामले में चीन का पलड़ा लगातार भारी हो रहा है. क्या मोदी कम कर पाऐंगे इस असंतुलन को?

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चीन आखिर भारत का सबसे बड़ा निर्यातक क्यों बन गया है? भारत अपनी उत्पादन क्षमताओं को बढ़ाने के लिए ऐसे कौन-से कदम उठाए, जिससे वह चीन से मुकाबला करने लगे? चीन के बारे में ऐसे सवाल कोई नए नहीं हैं. वह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है जो अपने यहां बनाए आधे से ज्यादा माल का निर्यात करता है.

अप्रैल से दिसंबर 2014 के बीच चीन से आयात 46 अरब डॉलर को छू गया था जो भारत के कुल आयात के 13 फीसदी से ज्यादा था और भारत के दूसरे नंबर के निर्यातक संयुक्त अरब अमीरात से आए माल का दोगुना था. भारत में चीन से निर्यात का बड़ा हिस्सा इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों का है. इसकी तुलना में भारत से चीन को निर्यात अप्रैल से दिसंबर 2014 के बीच सिर्फ 9 अरब डॉलर का था. यानी फासला 37 अरब डॉलर का है. आदित्य बिड़ला समूह के मुख्य अर्थशास्त्री और चीन पर भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) के कोर समूह के सदस्य अजित रानाडे कहते हैं, “भारत-चीन व्यापार में चीन का पलड़ा भारी होता जा रहा है.”

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इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों की मांग
नरेंद्र मोदी जब 14 मई को शिआन, बीजिंग और शंघाई के तीन दिवसीय दौरे पर चीन पहुंचेंगे तो उनके एजेंडे में शीर्ष पर इसी बढ़ते व्यापार फासले को संबोधित करना शामिल होगा. पिछले सितंबर में जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग गुजरात और दिल्ली के दौरे पर भारत आए थे तो मोदी और उनके बीच व्यापार को संतुलित करने के तरीकों पर बात हुई थी. तब चीन ने अगले पांच साल में 20 अरब डॉलर के निवेश और गुजरात तथा महाराष्ट्र में उत्पादन के लिए चीनी औद्योगिक पार्क की स्थापना की घोषणा की. लेकिन इन घोषणाओं पर अब तक मामूली प्रगति ही देखने को मिली है. इसके चलते चीनी निवेशकों में यह धारणा पैदा हुई है कि “मेक इन इंडिया” अभियान के बावजूद जमीन पर कुछ नहीं बदला है.

चीनी सामान का ढेर
करीब एक दशक पहले भारत के बाजार में चीनी उत्पादों की बाढ़ आई थी. इसके पीछे कमजोर युआन (चीन की मुद्रा), मूल्यों को प्रतिस्पर्धी बनाए रखने में सहयोग करने वाले थोक उत्पादन पर बल और भारत की अपनी उत्पादन क्षमताओं में कमियां जिम्मेदार थीं. सस्ता माल पाकर भारतीय काफी खुश हुए थे और धीरे-धीरे देश भर में चीनी सामान का ढेर लग गया. इसकी मार कमजोर देसी उत्पादकों पर पड़ी. कई छोटी भारतीय इकाइयों पर ताला पड़ गया, जबकि बड़ी इकाइयां अपने उत्पाद बनाने के लिए दूसरे ठौर तलाशने लगीं.

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चीनी निर्यात पर भारत की निर्भरता को सबसे बेहतर ऊर्जा क्षेत्र के उदाहरण से समझा जा सकता है. आज भारतीय परियोजनाओं के लिए करीब 80 फीसदी पावर प्लांट उपकरण चीन से मंगाए जा रहे हैं. तात्कालिक फायदा यह हुआ है कि ऊर्जा की कमी के इस दौर में चीनी उपकरणों ने भारतीय कंपनियों को अपनी क्षमता बढ़ाने में मदद की है. इसका दीर्घकालिक प्रभाव हालांकि बहुत साफ नहीं है. जाहिर है, इससे भारत के घरेलू उत्पादन क्षेत्र को झटका लगा है. लार्सन ऐंड टुब्रो के अध्यक्ष (भारी इंजीनियरिंग) और बोर्ड सदस्य एम.वी. कोतवाल कहते हैं, “ऐसे कई कारोबार जो स्वाभाविक तौर पर भारत में आने चाहिए थे, वे चीन में चले गए.”

सस्ते का बोलबाला
अकेले ऊर्जा उत्पादकों को ही चीनी आयात की ताकत से रू-ब-रू नहीं होना पड़ा है. चीन से थोक में पीवीसी पाइप मंगवाने वाले दिल्ली स्थित रमेश गुप्ता कहते हैं कि सिंचाई परियोजनाओं के कारण पीवीसी पाइपों की मांग लगातार बढ़ती जा रही है और चीन से आयात करने में आसानी हो रही है. वे कहते हैं, “मुंबई से सटे नावा शेवा बंदरगाह पर चीन से आने वाला एक टन पीवीसी पाइप 910 डॉलर का पड़ता है जबकि घरेलू उत्पाद की कीमत 1050 डॉलर है.”

ऑटो पार्ट्स एक और क्षेत्र है जिसे चीनी आयात की बाढ़ से संघर्ष करना पड़ रहा है. 2013-14 में चीन से इंजन पिस्टन, ट्रांसमिशन ड्राइव, स्टीयरिंग और बॉडी कंपोनेंट का आयात कुल 2.6 अरब डॉलर रहा है और भारत में होने वाले ऑटो पार्ट्स आयात का 21 फीसदी रहा है जिसने आयात के मामले में 15 फीसदी वाले जर्मनी को पीछे छोड़ दिया है. दूसरी ओर भारत ने सिर्फ 30 करोड़ डॉलर के पार्ट्स चीन को निर्यात किए. ऑटोमोटिव कंपोनेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष रमेश सूरी कहते हैं कि चीन के आयात सबसे ज्यादा मात्रा में बाजार में हैं जिनकी गुणवत्ता अपेक्षाकृत खराब है. वे कहते हैं, “भारत में इसका बाजार अनुमानित 6 अरब डॉलर का है और इसमें 36 फीसदी से ज्यादा का नकली बाजार है. अधिकतर माल चीन का है.”

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उत्पादन में पिछड़े
पूर्व यूपीए सरकार द्वारा घोषित राष्ट्रीय उत्पादन नीति हर साल उत्पादन क्षेत्र में 12 से 14 फीसदी वृद्धि पर केंद्रित थी जिसमें दस करोड़ रोजगार का सृजन होना था और 2022 तक जिसे जीडीपी में 25 फीसदी हिस्सेदारी हासिल कर लेनी थी जो फिलहाल 15 फीसदी के आसपास है. यह प्रयास साकार नहीं हो सका. मोदी का “मेक इन इंडिया” अभियान चीन के मुकाबले बढ़ रही उत्पादन की इसी खाई को पाटने के उद्देश्य से लाया गया है ताकि भारत को उत्पादन इकाइयां स्थापित करने के मामले में शीर्ष स्थल के रूप में गढ़ा जा सके. चुनौती यह है कि पिछले दस से पंद्रह वर्षों के बीच बाकी देशों ने प्रतिस्पर्धा में खुद को इस हद तक सुधारा है कि भारतीय कंपनियां न तो मूल्य में और न ही गुणवत्ता में उनका मुकाबला कर सकती हैं.

भारत की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारुति सुजुकी के चेयरमैन आर.सी. भार्गव कहते हैं, भारतीय उत्पादन क्षेत्र की समस्या बहुत गहरी है और इसे एक साल में दुरुस्त नहीं किया जा सकता.” वे कहते हैं, “इसके अलावा एक समाजवादी विरासत भी है जो इस भावना को व्यापक बनाती है कि निजी क्षेत्र की मदद करना बुरा काम है. इसे भी बदलना होगा.”

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