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जलवायु परिवर्तनः दुश्‍मनों से घिरी धरती

धरती के भविष्‍य को भारी खतरे में डालते हुए अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान, चीन और ऑस्‍ट्रेलिया सहित कुछ देशों ने कोपेनहेगेन सम्‍मेलन को निष्‍फल बनाने की सांठगांठ की.

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बहुचर्चित फिल्म 2012 में दिखाया गया है कि हमारी पृथ्वी अचानक सूर्य की धधक से नष्ट हो जाती है. इस धधक से पृथ्वी का केंद्र अत्यंत गरम हो जाता है, जिससे पृथ्वी की भीतरी परतों में भारी उथलपुथल मचती है. इसके परिणामस्वरूप प्रलय आ जाती है. सूनामी, भूकंप और ज्‍वालामुखी से पृथ्वी पर समूचा जीवन नष्ट हो जाता है, सिर्फ थोड़े-से आधुनिक जलस्त्रोतों को छोड़कर, जिन्हें जी-8 देशों ने कुछ थोड़े से लोगों को बचाने के लिए तैयार किया है. यह स्तब्ध कर देने वाला कथानक है.

वर्ष 2015 में, और यह वास्तविक दुनिया की बात है, जलवायु परिवर्तन के मसले पर अंतर-सरकारी पैनल (आइपीसीसी) के अध्यक्ष आर.के. पचौरी वैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर बताते हैं कि दुनिया के मुल्क अगर ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) का उत्सर्जन मौजूदा स्तर पर जारी रखते हैं तो भूमंडल का औसत तापमान खतरनाक बिंदु तक बढ़ जाएगा और तब जलवायु में इस कदर परिवर्तन हो जाएगा कि उसे बदला नहीं जा सकेगा.

पहले ही विश्व इस दबाव को महसूस कर रहा है-पिछले दशक की गर्मियां अब तक सबसे ज्‍यादा तीखी रही हैं. भीषण चक्रवात और तूफान आए, विनाशकारी अकाल पड़े और बरसातें हुईं, समुद्र की सतह खतरनाक रूप से चढ़ गई और तमाम देशों में खेती नष्ट हुई. दूर की छोड़ दें तो भारत में ही इस साल गर्मियों में सूखा पड़ा, मुंबई में असामान्य बारिश हुई और नरगिस चक्रवात ने म्यांमार को भारी क्षति पहुंचाई. यह सब जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है. खतरा सिर्फ जानो-माल को ही नहीं है, बल्कि समाज को भी है, क्योंकि तब असफल देशों की संख्या बढ़ने से आतंकवाद, नशीली दवाओं, हथियारों की तस्करी और विस्थापन में भी इजाफा होगा, जिससे दुनिया और भी असुरक्षित हो जाएगी.

लेकिन कोपेनहेगेन के बेल्ला सेंटर में जलवायु परिवर्तन पर चल रहे शिखर सम्मेलन में आसन्न संकट पर बातचीत के लिए जुटे 192 देशों के रुख से नहीं लगता कि वे पृथ्वी पर खतरे को लेकर कतई चिंतित हैं. सम्मेलन के शुरू में सम्मेलन के अध्यक्ष कोनी हेडेगार्ड ने यह कह कर कुछ उत्साह जगाने की कोशिश की कि  ''इतिहास में कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब विश्व अलग-अलग रास्ते जाने का चुनाव कर सकता है. यह ऐसा निर्णायक क्षण है. हम हरित समृद्धि और सुरक्षित भविष्य की ओर जाने का रास्ता चुन सकते हैं, या गतिरोध वाला रास्ता जिस पर हम जलवायु परिवर्तन के बारे में कुछ भी न करें और उसका खामियाजा हमारी संतानों और उनके बाद वाली संतानों को भरना पड़े. जाहिर है, चुनाव करना कतई कठिन नहीं है.''

दुख है कि ऐसी बातें कोई भी गंभीरता से सुनने को तैयार नहीं लगता. कोपेनहेगेन तीन वर्षों से चल रही बातचीत का चरमोत्कर्ष था, जहां से पृथ्वी को बचाने की रूपरेखा निकलनी चाहिए थी. लेकिन हेडेगार्ड और अन्य नेता अब शर्म के साथ इसे ''प्रक्रिया की शुरुआत, न कि अंत'' बता रहे हैं. 192 देशों के नेता 18 दिसंबर को अचानक कोई सामूहिक फैसला न कर लें तो यह सम्मेलन एक राजनैतिक समझैते के रूप में समाप्त होने वाला है जिसमें सिर्फ वे सदिच्छा जाहिर करेंगे, न कि कोई लागू होने वाला कदम उठाएंगे. संक्षेप में, यह सम्मेलन एक गर्मागर्म बहस भर रह जाएगा.{mospagebreak}इस बीच अमेरिका में यह सम्मेलन पहले ही देर रात के प्रहसनों में मजाक का विषय बन गया है. एनबीसी पर जिमी फैलॉन ने अपने दर्शकों से पूछा, ''क्या आप लोग कोपेनहेगेन में यूएन के पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन को लेकर रोमांचित हैं? हां, यह आज शुरू हो रहा है, राष्ट्रपति ओबामा ने कहा है कि अमेरिका 2020 तक कार्बन उत्सर्जन 17 प्रतिशत तक कम कर सकता है. वे शायद कह सकते हैं कि जाहिर है, तब तक मैं इस पद पर नहीं रंगा. इसलिए मैं कोई भी वादा कर सकता हूं. 2020 तक हर आदमी, औरत और बच्चे के लिए एक मुफ्त एक्सबॉक्स, हर छैला के लिए एक मेगन फॉक्स क्लोन होगा. यह मेरी समस्या नहीं होगी, तब राष्ट्रपति टिंबरलेक की समस्या होगी.'' जे लेनो ने मजाक किया, ''वे कहते हैं, गरमी ऐसे बढ़ती रही तो 2015 तक हिलेरी क्लिंटन पसीज सकती हैं.''

कोपेनहेगेन सम्मेलन कई तरह से अपनी शुरुआत से ही असफल होने वाला था. यह ऐसा सम्मेलन होने वाला था जिसमें क्योटो प्रोटोकॉल के तथाकथित एनेक्स-1 के औद्योगिक देशों को अपने जीएचजी उत्सर्जन में कानूनी रूप से अधिक कटौती का वचन देना था. उन्हें प्रतिबद्धता की दूसरी अवधि को पूरा करना था जो 2012 से 2016 तक होनी थी. यह और बात है कि प्रोटोकॉल के तहत अधिकांश देश 2005 से 2012 तक की प्रतिबद्धता की पहली अवधि के लक्ष्यों को पूरा करने में असफल रहे हैं. इस अवधि में उन्हें अपने जीएचजी उत्सर्जन में 1990 के स्तर से औसत 5 प्रतिशत तक कटौती करनी थी. लेकिन 1992 में रियो के पृथ्वी सम्मेलन में यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसी) पर हस्ताक्षर के बाद से विश्व जीएचजी उत्सर्जन स्तर 30 प्रतिशत तक बढ़ गया है.

आइपीसीसी कह चुका है कि अगर वैश्विक तापमान को दो अतिरिक्त सेंटीग्रेड के खतरे के बिंदु से आगे बढ़ने से रोकना है तो औद्योगिक देशों को 2020 तक अपने जीएचजी स्तर में 1990 के स्तर से 25 से 40 प्रतिशत के बीच कटौती करनी होगी. अमेरिका समेत अधिकांश देश मुश्किल से 5 से 17 फीसदी की कटौती करना चाहते हैं. भारत की ओर से बातचीत करने वाले चंद्रशेखर दासगुप्ता इसे ''दुखद'' बताते हैं. अमेरिका, जो पृथ्वी का शत्रु नंबर एक है, क्योटो प्रोटोकॉल का वर्षों से अनुमोदन करने से इनकार करने के बाद राजी हुआ कि वह अपने कार्बन उत्सर्जन में 2005 के स्तर से 17 प्रतिशत तक कटौती करेगा. अगर आप उसे प्रोटोकॉल के कटऑफ वर्ष 1990 के अनुसार देखें तो यह कटौती मात्र 4 प्रतिशत ही बैठती है, जबकि यह इसकी तिगुनी होनी चाहिए थी.

गरीब देशों पर जलवायु परिवर्तन का असर पड़ने से अमीर देशों को उन्हें भारी मुआवजा देना था ताकि वे विपरीत स्थिति का सामना कर सकें. यूएनएफसीसीसी के मुताबिक, विकासशील देशों को इससे होने वाली क्षति की भरपाई के लिए विकसित देशों को उन्हें प्रतिवर्ष 400 अरब डॉलर मुहैया कराने होंगे. लेकिन अब तक सबसे अधिक 100 अरब डॉलर के मुआवजे के भुगतान की बात ब्रिटिश प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने की थी. यह आंकड़ा भी घट गया है और विकसित देश सिर्फ 40 अरब डॉलर देना चाहते हैं और वह भी केवल सबसे कम विकासशील देशों के लिए. औद्योगिक देशों को स्वच्छ प्रौद्योगिकी भी देनी थी ताकि विकासशील देश अपने यहां उत्सर्जन घटा सकें. लेकिन इन देशों ने बौद्धिक संपदा अधिकार का मुद्दा उठाया है और अब प्रौद्योगिकी ज्ञान की जगह सिर्फ सूचनाओं के आदान-प्रदान पर बात हो रही है.

तो अमेरिका, जहां प्रति व्यक्ति जीएचजी उत्सर्जन औसत भारतीय के मुकाबले 18 गुना है, शर्तें मानने से इनकार क्यों कर रहा है जबकि राष्ट्रपति अमेरिकी रीति-नीति बदलने की बात कह चुके हैं? इसका सीधा-सा जवाब हैः वहां कई बड़ी-बड़ी लॉबियां हैं जो यथास्थिति बनाए रखने के लिए प्रतिवर्ष 30 करोड़ डॉलर खर्च कर रही हैं. इनमें कोयला लॉबी शामिल है जिसकी पैठ 50 में से 22 राज्‍यों में है. फिर तेल लॉबी है, जॉर्ज बुश जिसके करीबी थे. ये लॉबियां ऑटोमोबाइल और हाइवे लॉबी के अतिरिक्त हैं. इसलिए भले ही ओबामा ने 2020 तक कार्बन उत्सर्जन में 17 फीसदी तक कटौती का वादा कर दिया है लेकिन उन्हें ऐसा करने में सीनेट में भारी मुश्किलों का सामना करना होगा. आश्चर्य नहीं कि क्योटो प्रोटोकॉल में अमेरिका की ओर से बातचीत करने वाले तत्कालीन उप-राष्ट्रपति अल गोर को सीनेट ने 95-0 से नकार दिया था-जिसके बाद अमेरिका के बारे में तमाम असुविधाजनक सचाइयां उजागर हो गई थीं.{mospagebreak}अमेरिका का मुख्य तर्क है कि क्योटो ने दुनिया में सबसे ज्‍यादा जीएचजी का उत्सर्जन करने वाले दो देशों चीन और भारत को शामिल नहीं किया. चीन एक विसंगति है क्योंकि इसने जीएचजी उत्सर्जन के मामले में अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया है और आर्थिक प्रगति के साथ विकासशील देशों की कक्षा से तेजी से बाहर आ रहा है. चीन जानता है कि जीएचजी उत्सर्जन पर लगाम लगाने या हरित प्रौद्योगिकी लाने में उसे करीब एक दशक लगेगा. तब उत्सर्जन कम करने पर उसके विकास पर कोई असर नहीं पड़ेगा. इसलिए अभी हाल तक वह बिना किसी बंदिश के, स्वेच्छा से भी कटौती करने से इनकार कर रहा था. लेकिन पिछले महीने राष्ट्रपति हु जिंताओ ने घोषणा की कि चीन अपने यहां कार्बन उत्सर्जन में 40 फीसदी की कटौती करेगा. यह मात्रा भी विकसित देशों से की जा रही अपेक्षा की तुलना में कुछ भी नहीं है, क्योंकि उनसे पूरा का पूरा उत्सर्जन खत्म करने की उम्मीद की जाती है, जबकि उत्सर्जन का संबंध जीडीपी में प्रत्येक डॉलर जोड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाली ऊर्जा से जुड़ा है. वास्तविक अर्थों में चीन के उत्सर्जन स्तर में कमी नहीं आएगी-सिर्फ गति धीमी होगी.

अमेरिकी अड़ियलपन किसी वायरस की तरह यूरोप में भी फैल गया है. अब यूरोप भी भारी कटौती के अपने वादे से पीछे हटने लगा है, जो उन्होंने शुरू में किया था. एक समय यूरोप 2050 तक अपने यहां जीएचजी उत्सर्जन में 50 फीसदी की कटौती की बात कर रहा था. लेकिन यूरोप उत्सर्जन में कटौती करके अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी अमेरिका के मुकाबले औद्योगिक प्रतिस्पर्धा में पीछे नहीं रहना चाहता. कटौती से उत्पादन लागत बढ़ेगी. परंपरागत ईंधन के मुकाबले पुनःप्रयोग में आने वाली ऊर्जा महंगी पड़ती है. कुछ समय के लिए जब तेल की कीमतें प्रति बैरल 160 डॉलर पर थीं तो वैकल्पिक ऊर्जा आशाजनक लगने लगी थी. लेकिन तेल की कीमतें प्रति बैरल 70 डॉलर पर आने के बाद ये आशाएं धूमिल पड़ गईं.

जलवायु परिवर्तन पर वार्ता को अगर किसी एक बात ने सबसे ज्‍यादा झटका दिया तो वह है आर्थिक मंदी. रोजगार सुरक्षा पहली प्राथमिकता बन गई है. विकसित देश जब बेरोजगारी की दर कम करने की कोशिश कर रहे हैं, वे जीवन शैली में कोई बदलाव या अर्थव्यवस्था में हेरफेर नहीं चाहेंगे. इसलिए पिछले दो वर्षों से वे आपस में मिलकर क्योटो प्रोटोकॉल को निष्फल करने की साजिश में जुट गए हैं. अमीर देशों का एक गुट बनाते हुए ऑस्ट्रेलिया, जो प्रति व्यक्ति जीएचजी उत्सर्जन में सबसे आगे है, वर्षों तक प्रोटोकॉल में शामिल होने से इनकार करता रहा है. जब वहां केविन रड प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने अंततः उसका समर्थन किया लेकिन उसके बाद से ऑस्ट्रेलिया प्रोटोकॉल के सिद्धांतों को नष्ट करने में लगा रहा है.

कोपेनहेगेन से पहले ऑस्ट्रेलिया ने एक प्रस्ताव रखा था, जिसमें प्रतिबद्धता की बात आने पर विकसित और विकासशील देशों के बीच अंतर को बिगाड़ने की कोशिश की गई थी. क्योटो प्रोटोकॉल में माना गया था कि औद्योगिक देशों पर ऐतिहासिक जिम्मेदारी है क्योंकि उन्होंने पिछली दो सदियों में वातावरण में टनों जीएचजी का उत्सर्जन किया है. इन देशों को न सिर्फ उत्सर्जन में कटौती करनी होगी बल्कि विकासशील देशों की आर्थिक मदद करनी होगी. चीन और भारत समेत जी-77 देशों ने पाया कि यह प्रस्ताव पूरे प्रोटोकॉल को ही पलट देने का प्रयास है ताकि इस पर नए सिरे से बातचीत हो. उन्होंने तुरंत इसे खारिज कर दिया.

इस बीच अमीर देशों ने ज्‍यादा जरूरतमंद देशों को वित्तीय मदद देने का प्रस्ताव देकर जी-77 देशों में फूट डालने की कोशिश की, खासकर मालदीव जैसे द्वीपीय देशों को, जो खतरे में हैं. चीन और भारत को, जो स्वच्छ विकास व्यवस्था के तहत भारी रकम पा चुके हैं, चुप रखने के लिए उन्होंने कहा कि जंगलों को बचाने के लिए और मुआवजा दिया जाएगा. इस प्रकार वन कटाई और विनाश से उत्सर्जन में कमी के लिए एक कोष जारी किया गया जो ब्राजील और इंडोनेशिया जैसे देशों को अपने जंगलों को बचाने में मदद करेगा. विकासशील देशों का रुख नरम रखने में असफल होने के बाद विकसित देश अब एक डेनिश प्रस्ताव पर जोर दे रहे हैं जो कोपेनहेगेन से निकलने वाला एक राजनैतिक समझैता होगा. 'प्लेज ऐंड रिव्यू' नाम के इस प्रस्ताव को जी-77 और चीन पहले ही क्योटो प्रोटोकॉल के मुख्य प्रावधानों को नष्ट करने के प्रयास के तौर पर देख रहे हैं. कोपेनहेगेन में कोई वाजिब समझैता नहीं होता है तो नेताओं को दुनिया भर में आम जनता के गुस्से का सामना करना पड़ेगा. खासकर औद्योगिक देशों में, जिन्हें अपने स्वार्थ के कारण पृथ्वी के दुश्मन के तौर पर देखा जा रहा है. फिल्म 2012 कहीं हमारी आशंका से पहले न सच बन जाए.

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