हिंसा का हमेशा मजहब या मत से गहरा रिश्ता होता है. इस्लाम, ईसाई या फिर मार्क्सवादी सभी किताबी मतों पर यह लागू होता है.
ईसवी सन् के शुरुआती दौर में ईसाई मतावलंबियों ने यूरोप में जितने नरसंहार किये, उसके सामने मुसलमान हमलावर और क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पानी भरें. हिटलर तो नाहक बदनाम है, जिसके गुरु थे स्टालिन, जिन्होंने करोड़ के लगभग देशवासी वर्गशत्रुओं को मरवाकर यह मुश्किल पदवी पाई.
दुनिया में अधिकांश हिंसा इस्लामी देशों के खाते में है. उद्देश्य, 21 वीं सदी में 7वीं सदी का निज़ामेमुस्तफा लाना. आईएस और अलक़ायदा कहां के हैं? इनके चहबच्चे संगठनों को जोड़ दें, तो फिर संख्या 100 से ज्यादा होगी.
इस्लाम अच्छा, मुसलमान बुरे, साम्यवाद अच्छा, साम्यवादी बुरे, हिंदुत्व अच्छा, हिंदू बुरे और योजना अच्छी, अमल घटिया- इस तरह की बात कोई नक्काल हिंदुस्तानी या बुद्धिविलासी सेकुलरदास ही कह सकता है, जिसके '100 ख़ून माफ हैं'.
ऐसे ही ग़ाज़ियों की बंदिशों से तंग ग़ालिब मियां ने क्या ख़ूब कहा:
बेदरोदीवार-सा इक घर बनाया चाहिए...
इससे भी मन न भरा तो चुटकी ली:
हमें मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है.
(डॉ. चंद्रकांत प्रसाद सिंह के ब्लॉग U & ME से साभार)