इंडिया टुडे के एडीटर-इन-चीफ अरुण पुरी के स्वागत भाषण के साथ 9वां 'इंडिया टुडे कॉनक्लेव' शुरू हुआ. इस कॉनक्लेव में दुनिया भर के तमाम दिग्गज भाग ले रहे हैं. कॉनक्लेव का विषय है 'नया दशक-बड़ी उम्मीदें'. अरुण पुरी के स्वागत भाषण का मुख्य अंश:
'ये दौर सबसे बेहतर है और सबसे खराब भी. ये दौर बौद्धिक है और मूर्खताओं भरा भी. ये आशा का बसंत है और निराशा की सर्दी भी. हमारे सामने सब कुछ है और कुछ भी नहीं'
चार्ल्स डिकेन्स की ये लाइनें बीते दशक के लिए सटीक हैं. गुजरा दशक काफी उठापटक वाला रहा. जलती हुई दो इमारतों से शुरू हुआ ये दशक पूंजीवाद के सबसे बड़े मंदिरों के पतन के साथ खत्म हुआ. मगर मंदी के बावजूद गुजरे दशक में 3.5 फीसदी का विकास दुनिया ने भी देखा. गुजरे दशक में 25 करोड़ लोग गरीबी के बंधन से आजाद हुए हैं. नए दशक की शुरूआत में हम सब भविष्य की संभावना तलाशने इकट्ठा हुए हैं. 'इंडिया टुडे कॉनक्लेव' हमेशा भविष्य की दिशा तय करता है. कल की गलतियों से सबक लेकर भविष्य संवारता है. हर साल इस मंच पर आने वाले दौर के बेहतरीन विचारों पर चर्चा होती है. देवियों और सज्जनों, 9वें 'इंडिया टुडे कॉनक्लेव' में आपका स्वागत है. गुजरे आठ कॉनक्लेव में पिछले दशक की कामयाबियों और गलतियों का खाका देख सकते हैं. इस बार 'इंडिया टुडे कॉनक्लेव' का विषय है 'नया दशक-बड़ी उम्मीदें'.
21वीं सदी की शुरूआत में दुनिया का सामना हुआ सभ्यता के नए दुश्मन से ग्लोबल टेररिज्म से, जिसका कोई चेहरा नहीं, कोई सीमा नहीं. आतंक के खिलाफ जंग एक नैतिक लड़ाई थी. अफगानिस्तान के बाद ईराक बना इस जंग का मैदान. अमेरिका आतंक के खिलाफ जंग जारी भी रखना चाहता है लेकिन मुझे लगता है कि अंदरुनी हालात के चलते अमेरिका को कदम खींचने होंगे. अमेरिका के हालात बिगड़े तो भारत को भी दिक्कत होगी.{mospagebreak}बाली से मुंबई तक आतंक की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है. हर आतंकी हमले में कहीं ना कहीं पाकिस्तान जुड़ा था. आतंक की शिकार उसी मुल्क की अपनी बेटी भी बनी. बेनजीर भुट्टो दो साल पहले इसी कॉनक्लेव में शरीक हुई थीं. बेनजीर की घरवापसी का अंत दर्दनाक रहा. जनरल मुशर्रफ भी पिछले साल इसी कॉनक्लेव का हिस्सा थे.
बदहाल पड़ोस के मुकाबले भारत का लोकतंत्र शानदार रहा. भारत में पहली दक्षिण पंथी सरकार का आना ऐतिहासिक था. 2004 में कांग्रेस की जीत से बड़ी थी बीजेपी की हार. 5 साल बाद की कांग्रेस की जीत मां-बेटे के नाम रही. भारतीय वोटर राजनीतिक पंडितों को हमेशा हैरान करता है. कांग्रेस को स्पष्ट जनादेश हमारे प्रधानमंत्री की गरिमा को रोशन करेगा. डॉ मनमोहन सिंह का अंदाज उन्हें दशक का बेहतरीन नेता बनाता है दूसरी तरफ है विपक्ष के दिग्गज नेता का आत्मघात.
8.5 फीसदी विकास दर के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था इस दशक में खूब चमकी. भारतीय कंपनियां विदेशी बाजारों में जमकर खरीदारी कर रही हैं. अर्थव्यवस्था के विकास में भागीदार तमाम उद्यमियों में ही देश का भविष्य है. लेकिन विकास के नाम पर आतंक के खतरे से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. भारत आतंक का सबसे बड़ा पीड़ित है. मुंबई का आतंकी हमला राष्ट्रीय शर्म था. गुजरे दशक में आतंकवाद भारत में 42 हजार जानें ले चुका है. आतंकवाद की वजह से हमने काफी खून बहाया है. ऐसा लगता था कि जैसे हमें हमलों के साए में ही जीना होगा. सुरक्षा तंत्र को पुख्ता करने के लिए गुजरे साल में कदम उठाए गए लेकिन तमाम इंतजाम ताजा आतंकी हमलों से बौने साबित हुए.
गुजरे दशक में भारत का अंतर्राष्ट्रीय चेहरा काफी बदला है. तीसरी दुनिया की सोच से बाहर निकला है. भारत परमाणु समझौते से स्पष्ट हुआ कि भारत-अमेरिका स्वाभाविक सहयोगी हैं. सवाल ये कि क्या दुनिया की ताकत की धुरी एशिया बन गई है? चीन के विकास की कहानी प्रेरणा देती है. सुपर पॉवर बनने के लिए चीन को तीसरी दुनिया की सोच छोड़नी होगी. चीन को किसी भी हाल में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. वाशिंगटन और दिल्ली दोनों के लिए चुनौती है ड्रैगन.{mospagebreak}आतंकवाद, आर्थिक अस्थिरता और पर्यावरण को खतरा, तीन बड़े खतरे हमें घूर रहे हैं. हम सब इन मसलों का एक साथ सामना कर रहे हैं. अफगानिस्तान में आतंक के खिलाफ जंग नाजुक दौर में है. राजनीतिक हित ओबामा को कदम खींचने को मजबूर कर सकते हैं. याद रखें कि भारत के भी अफगानिस्तान में काफी हित हैं कुछ की आपत्ति पर आतंक के खिलाफ जंग रोकी नहीं जा सकती. पड़ोसी नहीं सुधरा तो आतंक से जूझते भारत के साथ न्याय नहीं होगा.
वैसे खून के कुछ धब्बों को छोड़ दें तो इस दशक का रंग हरा भी था. धरती को बचाने की कोशिशों पर कोपेनहेगन में सहमति नहीं बनी लेकिन कोपेनहेगन ने पर्यावरण की रक्षा के लिए बड़ी चेतना पैदा की. खतरे में पड़ी धरती को बचाने का जिम्मा हम सब का है.
अब हम अर्थव्यवस्था की बात करें. अर्थव्यस्था सुधार रही है लेकिन क्या गुजरे दौर से हमने कुछ सीखा है? आर्थिक मंदी ने हमें सिखाया है कि वित्तीय संस्थान वैश्विक हो चुके हैं जबकि वित्तीय संस्थान औऱ बाजार अब भी स्थानीय कानूनों से नियंत्रित हैं. अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से हमें बाजार की ऐसी दशा सुधारनी चाहिए.
भविष्य के अनिश्चित से हमारी आज की उम्मीदें डगमगा रही हैं मगर ये सच है कि आने वाली लीडरशिप भविष्य संवार देगी. लीडरशिप से मेरा मतलब वैसे नेतृत्व से है जो दृढ़ फैसले करे. हम जानते हैं कि सत्ता की मजबूरियां बदलाव का रास्ता रोक देती हैं. देखिए कि उम्मीदवार ओबामा और राष्ट्रपति ओबामा में कितना फर्क है?
हमें कई क्षेत्रों में विकास की बड़ी उम्मीदे हैं. राजनीति, अर्थव्यवस्था, सुरक्षा, पर्यावरण में हम बड़ी उम्मीदें रखते हैं औऱ हम उम्मीद करते हैं भारत कई मोर्चों पर दुनिया का मार्गदर्शन करेगा. अपार युवाशक्ति की वजह से देश में तरक्की की अपार संभावनाएं हैं. देवियों और सज्जनों, मुझे क्षमा करें, राजनेताओं से बड़ी उम्मीद नहीं रखता लेकिन कार्यक्रम में मौजूद वक्ताओं से बड़ी उम्मीदें हैं, जिनमें शामिल हैं कई जानी मानी हस्तियां.