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सियासी रहनुमाओं को मंजूर नहीं खुद के लिए RTI

जिस कोयला खादान आंवटन की फाइल पीएमओ में दस्तक दे रही है और सुप्रिम कोर्ट में मामाला चल रहा है, दरअसल उसकी पहली जानकारी आरटीआई के जरीये ही सामने आयी थी कि कैसे कोयला खादानो को औने पौने दामो में ऐसे वैसो में बंदर बांट कर दिया गया.

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जिस कोयला खदान आवंटन की फाइल पीएमओ में दस्तक दे रही है और सुप्रीम कोर्ट में मामला चल रहा है, दरअसल उसकी पहली जानकारी आरटीआई के जरीये ही सामने आयी थी कि कैसे कोयला खदानो को औने-पौने दामों में ऐसे वैसो में बंदर बांट कर दिया गया.

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सिर्फ कोयला खदान ही नहीं मनरेगा से लेकर राशन दुकानों से बीपीएल परिवारों को मिलने वाले खदान की लूट से लेकर पेट्रोल के मिलावट और सरकारी योजनाओं में लूट की सौकड़ों जानकारी आरटीआई से ही निकली. और इन तमाम जानकारी के बाद घपले घोटाले अगर कम नहीं भी हुये तो भी एक डर तो हर किसी में आया कि उसकी गड़बड़ी आरटीआई के तहत आज नहीं तो कल सामने आ सकती है.

जाहिर है इसका श्रेय़ बार-बार सोनिया गांधी से लेकर मनमोहन सरकार के हर कद्दावर मंत्री ने लिया भी और देश को गिनाया भी. यानी कभी किसी राजनीतिक दल ने इससे पहले यह नहीं कहा कि
-आरटीआई से देश का भला नहीं हो रहा.
-आरटीआई से गलत जानकारी सामने आती है.
- या फिर आरटीआई से सरकार को कामकाज में मुश्किल हो रही है.

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सवाल है जब इससे पहले हर वक्त आरटीआई का गुणगाण ही किया गया तो फिर ऐसा क्या है कि राजनीतिक दलों को जैसे ही आरटीआई के दायरे में लाने को कहा गया तो एक सिरे से सभी के एक ही सुर हो गये और लगे सभी विरोध करने.

सवाल है कि जिस आरटीआई कानून ने देश में कई घोटालेबाजों को बेनकाब किया, जिस सूचना के अधिकार कानून से देश मे दर्जनों भ्रष्टाचारियों के चेहरे से नकाब उठा, उसी कानून के तहत राजनीतिक दलों को भी लाने की बात देश की सियासत के रहनुमाओं को क्‍यों मंजूर नहीं है?

क्या राजनीतिक दलों को यह खतरा लगने लगा है कि चुनाव के लिये जो चंदा उनतक पहुंचता है, आरटीआई के दायरे में आने के बाद चंदा देने वालों के साथ सत्ता में आने के बाद उनके संबंधों की पोल पट्टी खुल सकती है. या फिर राजनीतिक दल लोकतंत्रिक व्यवस्था का नाम लेकर जिस तरह
- चंदे के नाम हर काली कमाई को पचा लेते है या
- नेताओं की शाहखर्ची का कोई हिसाब किताब नहीं होता

वह सब सामने आ जायेगा. लिहाजा यह माना जाये कि राजनीतिक दलों को आरटीआई कानून के दायरे में लाने के केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश पर राजनीतिक दलों को सांप सूंघ गया है.

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राजनीतिक पार्टियों की कमाई को कोई हिसाब नहीं
देश के टॉप 10 राजनीतिक दलों के पास चंदे के तौर पर हर बरस सवा लाख करोड़ से ज्यादा की राशि आती है. लेकिन यह पैसा कौन देता है और जो यह चंदा देते हैं उनको इस चंदे के एवज में क्या कुछ राजनीतिक दलों से मिलता है, यह आज भी सस्पेंस है. जबकि दर्जनों आरटीआई हर राजनीतिक दल के दफ्तर में यह जानने के लिये लगायी गयी लेकिन कभी कोई जानकारी निकल कर नहीं आयी. जो जानकारी आयी वह राजनीतिक दलों के टैक्स भरने के दौरान निकली. वह रकम भी इतनी ज्यादा है कि इलेक्शन वाच नामक संस्था ने उसपर भी ऊंगली उठायी, लेकिन हाथ कुछ भी नहीं आया. रकम कितनी ज्यादा है यह 2009 से 2011 तक राजनीतिक दलों की कमाई से समझा जा सकता है.

मसलन कांग्रेस की कमाई 77,467 करोड़ रही तो बीजेपी की कमाई 42,602 करोड़ रुपये और सीपीएम की कमाई 14,985 करोड़ रही. खास बात यह है कि जो सत्ता में रहता है उसकी कमाई सिर्फ डोनेशन से नहीं होती. लेकिन दूसरे कौन से रास्ते होते हैं इसपर राजनीतिक दल खामोश हो जाते हैं. मसलन 2009-2011 के बीच कांग्रेस को सिर्फ 14 फीसदी डोनेशन मिला. लेकिन बीजेपी को 80 फीसदी डोनेशन से मिला. लेकिन आरटीआई दाखिल होने पर ना तो कांग्रेस ने दूसरे माध्यमों की कमाई का राज खोला और ना ही बीजेपी ने डोनेशन की समूची जानकारी बतायी.

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जबकि देश में आरटीआई के तहत जानकारी इकट्ठा करने वाली एक्टीविस्टों की रिपोर्ट बताती है कि सरकारी योजनाओं के तहत 80 करोड़ से लेकर दो हजार करोड़ तक की लूट को उजागर करने के चक्कर में 50 से ज्यादा कार्यककर्ताओं पर हमले हो गये और 25 मारे गये. यानी भ्रष्ट्राचार की छोटी से छोटी रकम को भी सामने आने देने से घपले घोटाले करने वाले किसी भी हद तक चले जाते हैं.

तब सवाल है कि जब ताकत राजनीति में बसती है तो राजनीतिक दल ही अगर खुद को आरटीआई से अलग रखेंगे तो फिर ईमानदारी या पारदर्शिता का भरोसा कैसे जगेगा. मुश्किल यह भी है सासंद ही लाभ के पद पर बैठकर अपने अनुकूल नीतियां और कानून बनाते हैं. लेकिन यह सामने इसलिये नहीं आ पाता क्योकि आरटीआई इनपर लागू नहीं होगा.

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