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Opinion: कांग्रेस के लिए एक और परीक्षा की घड़ी

कांग्रेस उस भंवर से अब तक नहीं निकल पाई है जिसमें उसकी कश्ती डूब गई थी. लोकसभा चुनाव में जबर्दस्त पराजय के बाद पार्टी ने सत्तारूढ़ दल पर आरोप लगाने के अलावा ऐसा कोई काम नहीं किया है जिससे लगे कि वह फिर से अपने को स्थापित करने की कोशिश कर रही है.

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सोनिया गांधी
सोनिया गांधी

कांग्रेस उस भंवर से अब तक नहीं निकल पाई है जिसमें उसकी कश्ती डूब गई थी. लोकसभा चुनाव में जबर्दस्त पराजय के बाद पार्टी ने सत्तारूढ़ दल पर आरोप लगाने के अलावा ऐसा कोई काम नहीं किया है जिससे लगे कि वह फिर से अपने को स्थापित करने की कोशिश कर रही है. पार्टी में न तो पुनर्गठन की सुगबुगाहट है और न ही इसे फिर से मजबूत करने का प्रयास. और इस कारण ही अब दो राज्यों में खुली बगावत देखने में आ रही है.

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पूर्वोत्तर राज्य असम के एक वरिष्ठ मंत्री हिमन्त विश्व सरमा ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया है और अपने पद से इस्तीफा दे दिया है. उनका कहना है कि मुख्यमंत्री तरुण गोगोई को फौरन हटा दिया जाए क्योंकि वे असफल हो चुके हैं. उन्होंने सीएम गोगोई को याद दिलाया था कि चुनाव में हार के बाद उन्होंने इस्तीफे की पेशकश की थी और उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए.

इतना ही नहीं सरमा ने पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की कमी की भी बात उठाई. ठीक इसी तरह अपने मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग करते हुए महाराष्ट्र के मंत्री नारायण राणे ने कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया है. उनके भी समर्थक चाहते हैं कि सीएम पृथ्वीराज चव्हाण को हटाकर उन्हें यह पद दिया जाए. पिछले हफ्ते ही उन्होंने आलाकमान को अपने इरादे जता दिए थे और अब इस्तीफा दे आए.

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दरअसल राणे को उम्मीद थी कि आलाकमान चव्हाण को हटाकर उन्हें सीएम की कुर्सी दे सकता है लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं दिखा तो उन्होंने यह पैंतरा अपनाया है. वैसे भी महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की जो दुर्दशा हुई है उसके बाद पार्टी में भय की स्थिति है.

गठबंधन के नेता सुरक्षित रास्ते तलाश रहे हैं और मुख्यमंत्री को बलि का बकरा बनाना चाहते हैं जबकि इस पराजय में सभी बराबर के भागीदार हैं. लेकिन पार्टी आलाकमान है कि चुप है और तमाशा देख रही है. समझा जाता है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने असम के सीएम को बदलने की मांग तो खारिज कर दी है लेकिन राज्य इकाई में हुई बग़ावत को थामने के बारे में वह चुप हैं.

ऐसा लगता नहीं कि महाराष्ट्र के बारे में भी वह कुछ सोच रहे हैं. सोनिया गांधी के पुराने सलाहकार भी चुप्पी साधे बैठे हैं. मतलब है कि पार्टी के पास न तो कोई फौरी प्लान है और न कोई दीर्घकालीन रणनीति. महाराष्ट्र में तो चुनाव आने ही वाले हैं और वहां पार्टी की दुर्गति है. ऐसे में अपना अस्तित्व बचाने के लिए जरूरी है कि पार्टी किसी ठोस योजना के तहत काम करे. लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है.

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पार्टी सन्नाटे की मुद्रा में है और उसके पास मोदी लहर को रोकने के लिए न तो राजनेता हैं और न ही कार्यकर्ता. ऐसा लगता है कि पार्टी अब पराजय की मानसिकता से बाहर नहीं निकल पा रही है. ऐसा लगता है कि डेढ़ सौ साल से ज्यादा पुरानी इस पार्टी के पास अब न तो दृष्टि है और न ही कोई ठोस योजना. ज़ाहिर है आने वाला समय उसके लिए और कष्टदायी होगा.

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