57 वर्षो तक देश पर शासन करने वाली पार्टी के सामने एक बड़ा संकट खड़ा है. 2014 के चुनाव उसे असलियत बता रहे हैं. चार महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव में पार्टी को मुंह की खानी पड़ी और उसके बाद आत्ममंथन का जो दौर शुरू हुआ है वह न केवल जारी है बल्कि लंबे समय तक चलेगा. लेकिन अब वह सक्रिय हो गई है और बड़े कदम उठाने को तैयार है. एक युवा नेता के नेतृत्व में पार्टी ने फिर से चलना शुरू किया है. दौड़ने में उसे कितना वक्त लगेगा, यह तो समय ही बताएगा.
बहरहाल पार्टी ने राज्यों में उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया शुरू करने के लिए एक स्क्रीनिंग कमिटी भी बना दी है. यह कमिटी कितनी दुरुस्त है और इसके सदस्य स्थानीय राजनीति की नब्ज कितनी पकड़ सकते हैं, यह तो समय ही बताएगा लेकिन पार्टी ने फिलहाल नामों का ऐलान करके यह जता दिया है कि वह मामले की गंभीरता को समझ रही है. पूर्व रेल मंत्री पवन कुमार बंसल के कंधे पर जिम्मेदारी है कि वह गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में पार्टी के लिए योग्य उम्मीदावार ढूंढे. इन राज्यों में पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया था और वहां कांग्रेस का संगठन भी मरणासन्न है. ऐसे में उनके सामने बहुत बड़ी चुनौती है. वैसे यह चुनौती तो हर राज्य के प्रभारी के सामने है. उनकी समस्या यह होगी कि राहुल गांधी की इच्छा के मुताबिक वे साफ-सुथरे उम्मीदवार ढूंढ़ें चाहे उसके लिए उन्हें वर्तमान सांसदों का टिकट क्यों न काटना पड़े. बैकफुट पर गई पार्टी के लिए इस तरह का कदम आत्मघाती हो सकता है.
कांग्रेस की एक और समस्या है और वह यह कि बिहार जैसे कई राज्यों में उसके संगठन का सफाया हो चुका है. वहां न तो जिला स्तर पर कार्यकर्ता हैं और न ही पंचायत स्तर पर. वह वक्त भी खत्म हो गया जब पार्टियां नेताओं के नाम पर चलती थीं. अब वे कार्यकर्ताओं के बल बूते पर चलती हैं. आम आदमी पार्टी का उदाहरण सबके सामने है जिसमें लोग खुद-ब-खुद कार्यकर्ता बनते चले गए और पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया. अब इतने कम समय में कांग्रेस कितने कार्यकर्ता बना सकती है? वह पीढ़ी जो कांग्रेस को स्वतः समर्थन करती थी, या तो दिवंगत हो गई या अपनी उपेक्षा से हताश कहीं और चली गई.
वक्त कम है और लड़ाई कठिन है. पार्टी के राजनीति कौशल की यह अग्नि परीक्षा की घड़ी है.