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यूपीए ने जाते-जाते किया था जाट आरक्षण का ऐलान, नहीं मिल पाया था सियासी फायदा

2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने जाट समुदाय को ओबीसी कैटेगिरी में शामिल किया था, लेकिन चुनावी फायदा नहीं मिला. ऐसे ही अब मोदी सरकार ने सवर्ण आरक्षण का दांव चला है.

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राज बब्बर, राहुल गांधी , अजित सिंह (फोटो-फाइल)
राज बब्बर, राहुल गांधी , अजित सिंह (फोटो-फाइल)

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लोकसभा चुनाव 2019 से ऐन पहले मोदी सरकार ने सवर्ण समुदाय की नाराजगी को दूर करने के लिए 10 फीसदी सवर्ण आरक्षण का दांव चला है. ऐसे ही 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने जाट ओबीसी कैटेगिरी में शामिल करने और अल्पसंख्यकों को 4.5 फीसदी आरक्षण देने का ऐलान किया था, लेकिन चुनावी रण में उसे सियासी फायदा नहीं मिला था. ऐसे में सवाल है कि मोदी सरकार का सवर्ण आरक्षण का कार्ड सत्ता में वापसी करा पाएगा?

दरअसल एससी-एसटी एक्ट को पुराने स्वरूप में लाने के लिए मोदी सरकार द्वारा किए गए संविधान संशोधन से सवर्ण जातियां नाराज मानी जा रही हैं. हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में सवर्ण जातियों की नाराजगी के चलते मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्ता गवांनी पड़ी. जबकि सवर्ण जातियां बीजेपी के परंपरागत वोटबैंक माने जाते हैं. इसके बावजूद उन्होंने बीजेपी के खिलाफ जाकर वोट दिया और नोटा का भी इस्तेमाल किया. तीन राज्यों में करीब 12 लाख वोट नोटा में पड़े थे.

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लोकसभा चुनाव 2019 के मद्देनजर सवर्ण समुदाय को साधने की रणनीति के तहत मोदी सरकार ने ट्रंप कार्ड के तौर पर गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने की कवायद कर रही है. विपक्ष की ओर से आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने सवर्ण आरक्षण का विरोध करते हुए ओबीसी के आरक्षण के दायरे को बढ़ाने की मांग कर दी है. मोदी सरकार में मंत्री और अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल ने भी तेजस्वी के सुर में सुर मिलाया है. इसके अलावा बाकी दल आरक्षण के समर्थन में हैं, लेकिन सियासी तौर पर बीजेपी के लिए कहीं ये दांव उलटा न पड़ जाए.  

यूपीए सरकार ने लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक पहले 4 मार्च, 2014 को जारी एक अधिसूचना के जरिए दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश के जाटों को ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल कर लिया था.

इसी आधार पर जाटों को केंद्र सरकार की नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण का हक मिल गया था, लेकिन चुनाव के सियासी संग्राम में जाट समुदाय ने कांग्रेस के बजाय बीजेपी के साथ खड़े नजर आए थे. इसका नतीजा रहा कि जाट बहुल लोकसभा सीटों पर कांग्रेस को करारी हार का सामना करना. इतना ही नहीं यूपीए के सहयोगी और जाटों के इर्द-गिर्द अपनी राजनीति करने वाली राष्ट्रीय लोक दल की बुरी तरह हार हुई. चौधरी अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी को भी हार का मुंह देखना पड़ा था. हालांकि बाद में जाट आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था.

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पिछली यूपीए सरकार ने जाट ही नहीं बल्कि अल्पसंख्यकों को 4.5 फीसदी आरक्षण देने का ऐलान किया था. लेकिन यूपीए का ये फैसला भी अदालत में नहीं टिक सका. कोर्ट में टिक न पाने की प्रमुख वजह ठोस आंकड़ों और ताजा सर्वे का न होना है.

दरअसल, जाति आधारित जनगणना के आंकड़े सरकार के पास हैं तो पर उसने इन्हें सार्वजनिक नहीं किया है. इसके अलावा संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात नहीं कही गई है. आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन करने के लिए सरकार कदम उठा रही है. लोकसभा चुनाव को देखते हुए एक दो क्षेत्रीय दलों को छोड़कर बाकी दल सरकार के इस कदम के साथ खड़े नजर आएंगे. ऐसे ही 2014 में जाट आरक्षण के पक्ष में भी सभी साथ थे, लेकिन चुनाव में मोदी को साथ मिलेगा ये तो 2019 में पता चलेगा.

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