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हिन्दी किताबों के बाजार में कापीराइट का संकट

हिन्दी के नामचीन लेखकों का मानना है कि देश में सर्वाधिक बोली जाने वाली इस भाषा की किताबों के बाजार में कापीराइट का संकट है और लेखकों में इस संबंध में जागरूकता का अभाव है.

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हिन्दी के नामचीन लेखकों का मानना है कि देश में सर्वाधिक बोली जाने वाली इस भाषा की किताबों के बाजार में कापीराइट का संकट है और लेखकों में इस संबंध में जागरूकता का अभाव है.

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ज्ञानपीठ के निदेशक रवीन्द्र कालिया के मुताबिक, हिन्दी के लेखकों में चेतना का अभाव है. किताबों का कापीराइट होते हुए भी प्रकाशक कितनी प्रतियां छाप रहे हैं, इस बारे में अमूमन लेखक अंजान ही रहता है.

उन्होंने जोर देकर कहा कि कापीराइट का मतलब वहां होता है, जहां पारदर्शिता होती है. जैसे विदेशी भाषाओं की किताबों के प्रकाशक कापीराइट को लेकर पारदर्शिता बरतते हैं.

उन्होंने कहा कि इंटरनेट के विस्तार के साथ कापीराइट का संकट अधिक बढ़ गया है और हिन्दी के लेखक एवं प्रकाशक तकनीक के मामले में साक्षर नहीं है. बिना चेतना और जागरूकता के कापीराइट महत्वहीन हो जाता है. फिल्मों में कापीराइट संबंधी विवाद होने के बाद लोग इस बारे में जानते हैं.

कवि लक्ष्मीशंकर बाजपेयी ने कहा कि किताबों के कापीराइट को लेकर लेखकों में जागरूकता का अभाव है और हमारे देश में अभी तक लेखन को कमाई का जरिया नहीं बनाया गया है. शायद इसके प्रति उपेक्षा एक बड़ा कारण है.

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{mospagebreak}बाजपेयी ने कहा कि कुछ अपवाद को छोड़ दिया जाये तो लोग व्यावसायिक तौर पर नहीं बल्कि शौकिया तौर पर लेखन कार्य करते हैं. इस कारण हिन्दी किताबों के बाजार में इसका दुरूपयोग होता है और गैर जिम्मेदार लोगों ने इसे धन कमाने का जरिया बना लिया है. उन्होंने कहा कि हिन्दी क्षेत्रों में सबसे अधिक मौलिकता का संकट है. किसी से कोई विचार लिया और उसे लेकर लेखन कर रहे हैं. खासकर मंचीय कवि तालिया बटोरने के लिए ऐसा करते हैं और लोगों में पढ़ने का रिवाज खत्म हो रहा है.

हिन्दी लेखकों में जागरूकता के अभाव को इसकी वजह बताते हुए उन्होंने कहा कि देश में केन्द्रीय पत्रिकाओं का अभाव है जिसके जरिये लोगों को पता चल जाता था कि कौन लेखक इस वक्त क्या लिख रहा है.

राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी ने बताया, ‘मुझे ऐसा नहीं लगता कि हिन्दी में कापीराइट को लेकर किसी प्रकार का संकट है. इस संबंध में कई किताबों का प्रकाशन हुआ है, जो काफी कम दामों में बाजार में उपलब्ध है.’ उन्होंने बताया कि अब तो देश में कापीराइट को बेचना काफी मुश्किल हो गया है. इसके लिए पहले अदालत से अनुमति लेना जरूरी होता है और जानकारी के अभाव को संकट मानना सरासर गलत है.

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उन्होंने कहा कि व्यवस्थित ढंग से प्रकाशन करने वाले प्रकाशक किताबों के नाम को लेकर भी काफी सजग रहते हैं और उनकी कोशिश होती है कि नाम दोबारा न आये.

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