उमर अब्दुल्ला का बैठकखाना सही मायनों में एक नितांत संभ्रांत भारतीय परिवेश वाली नजाकत से भरपूर है- गहरी सीटों वाला जिंगम कॉटन का सोफा, दीवारों पर परेश मइती के चित्र और तिब्बती थंग्का, हरे सेबों से भरा क्रिस्टल वेस, चाइनी.ज बाउल्स, जिन पर चेरी ब्लॉसम और ड्रैगन की आकृतियां करीने से उकेरी गई हैं.
कश्मीर के संदर्भ के तौर पर अगर कुछ हैं तो बस 19वीं सदी के उत्तरार्ध के श्रीनगर के सीपिया रंग के छायाचित्र. खिड़की के पास डेस्क पर एक एपल मैकिंटोश रखा हुआ है. किसी सियासतदां का ठिकाना तो यह कहीं से भी नहीं लगता. जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री, एकाकी स्वभाव के उमर कहते हैं, ''मुझे गुलमर्ग में स्कीइंग करना या फिर गोताखोरी पसंद है. लेकिन इन दिनों मेरी एक ही इच्छा बची है और वह है किसी भी तरह से जिंदा रहना, सियासी तौर पर भी और वैसे भी.''
जिस शख्स के बारे में हर किसी ने मान लिया था कि वह सियासत के लिहाज से फिट नहीं, वही उमर पिछले हफ्ते एकाएक आक्रामक हो उठे, जैसे वे दिखाना चाह रहे हों कि उन्हें शासन करना आता है. लेकिन इसमें भी उनकी अनुभवहीनता एक बार फिर से उजागर हुई. गुरुवार को उनके एक बयान को लेकर जम्मू-कश्मीर विधानसभा में खासा हंगामा खड़ा हो गया. उन्होंने अपने बयान में संदेह जताया था कि उनका राज्य भारत का अभिन्न अंग है. विपक्षियों ने उनके बयान का सख्त विरोध किया.{mospagebreak}
उमर ने तो यह भी कहा कि 1947 में महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ कश्मीर का विलय सशर्त समझैते के तहत किया था. इस पर विपक्षियों ने उन्हें यह कहते हुए घेरा कि मुख्यमंत्री भारत के संविधान का सम्मान करने के शपथ का उल्लंघन कर रहे हैं. उमर ने भाजपा के नजरिए पर भी सवाल उठाए. भाजपा कहती रही है कि जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में अब कोई विवाद सुलझने को बचा ही नहीं है. उमर की राय में, अगर ऐसा ही होता तो फिर शिमला समझैते, लाहौर घोषणापत्र और फिर आगरा और दिल्ली में वार्ता की क्या जरूरत थी? उनकी इस तरह की टिप्पणियों से विपक्षी विधायकों में उपजे आक्रोश पर काबू पाने के लिए मार्शल बुलाने पड़े.
असल में, उमर के सत्तारूढ़ होने के दिनों वाली उनकी साख और प्रतिष्ठा दो साल से कम के वक्त में ही गायब हो चुकी है. कश्मीर के लोगों ने अपने मुख्यमंत्री को उम्मीदों पर खरा नहीं पाया है, खासकर उनके दादा और अब्बा के मुकाबले. शेर-ए-कश्मीर शेख अब्दुल्ला तो भौतिक रूप से (उनका कद छह फुट चार इंच था) भी कश्मीर पर छाये रहे और प्रतीक रूप में भी. उनके बेटे, छह फुट से ज्यादा लंबे फारूक अब्दुल्ला यहां की अवाम के स्वाभाविक नेता थे. उमर अक्षम हैं और हालात से अनजान भी.{mospagebreak}
वैसे तो फारूक भी शेख अब्दुल्ला के बेटे होने की वजह से ही मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन गद्दीनशीन होने के बाद उन्हें काम लेकर आए मुलाकातियों, पार्टीजनों, अफसरशाहों और आम लोगों से हर वक्त घिरे रहना अच्छा लगता था. ऐसा ही कुछ रुतबा मुफ्ती मोहम्मद सईद का रहा. यहां तक कि चुप्पे-से गुलाम नबी आ.जाद को भी वह तरीका रास आया. फारूक के स्कूल के दिनों के साथी और राजीव गांधी के भी सलाहकार रह चुके विजय धर उनके बारे में एक मजेदार वाकया बताते हैं.
अस्सी के दशक में श्रीनगर से थोड़ी दूर पर एक गांव में जाते वक्त धर और फारूक को एक बुजुर्ग कश्मीरी ने रोका. धर रुकना नहीं चाहते थे लेकिन फारूक ने बाकायदा गाड़ी रोक कर उससे मुलाकात की. उन्होंने कहा, ''मेरे अब्बू हमेशा रुक कर उससे मिलते थे.'' पसोपेश में पड़े धर को बाद में फारूक रोटियां खिलाने और नमकीन चाय पिलाने घर ले गए. वहां मुलाकातियों और दरखास्तियों की भीड़ लगी थी. बुजुर्ग ने सारी दरखास्तें फारूक को देने के निर्देश दिए. शेख अब्दुल्ला के बेटे ने उन सारी अर्जियों को लेकर उनके काम करने का वादा किया. वे सबके काम भले न कर पाए हों लेकिन लोगों के बीच रहकर उनका मान तो वे रखते ही थे.{mospagebreak}
फारूक के पांच बार के कार्यकाल को कश्मीर के सबसे भ्रष्ट कार्यकालों के रूप में माना जाता है. उनके मुकाबले उमर को व्यक्तिगत तौर पर बेदाग माना जाता है. लेकिन श्रीनगर में उनके इस पहलू पर तो कोई बात ही नहीं करता. उनके कट्टर दुश्मन और कश्मीर में आतंकवाद के समर्थक सैयद अली शाह गिलानी ने तो इस भटकाव को बहुत पहले ही भांप लिया था. उनका कहना है, ''अब्दुल्ला खानदान 1938 से ही कश्मीरियों को धोखा देता आ रहा है. उस वक्त उन्होंने नेहरू खानदान की नजदीकी हासिल करने के लिए मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का नाम बदलकर नेशनल कॉन्फ्रेंस कर दिया.''
वे आगे जोड़ते हैं, ''बोमाई और शोपियां प्रकरण के बाद उमर को इस्तीफा दे देना चाहिए था. वे कहते हैं कि उनके दिल के 120 टुकड़े हो गए. फिर आखिर वे जिंदा कैसे हैं?'' उनका मानना है कि अब्दुल्ला परिवार अपनी लोकप्रियता खो चुका है और सूबे में अब उसका कोई वजूद नहीं है.
नेशनल कॉन्फ्रेंस भी हतोत्साहित है और अब उसे अपने उखड़ जाने का अंदेशा खाए जा रहा है. खुफिया सूत्रों का कहना है कि इसके बहुत-से कार्यकर्ता पत्थरबाजी में शामिल हैं. उमर के तो पार्टी में भी ज्यादा दोस्त नहीं हैं. यहां तक कि उनके अब्बू भी 2010 में खुद मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद पाले हुए थे. लुंजपुंज हो चुकी पार्टी में अब्दुल्ला परिवार के लिए एक मौन चुनौती उभर रही है.{mospagebreak}
हालांकि उमर इसे महज अफवाह करार देते हैं. रहीम राठर, चौधरी मोहम्मद रमजान और सकीना इत्तू जैसे नौजवान नेता अपने व्यापक जनाधार के लिए धुंधले पड़ते अब्दुल्ला के चमत्कार पर निर्भर नहीं हैं. उमर के मंत्रिमंडलीय सहयोगी, जम्मू के विधायक सुरजीत सिंह स्लाथिया पीडीपी पर आरोप लगाते हैं कि वह कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेस्तनाबूद हो जाने की अफवाह फैला रही है.
आज मुख्यमंत्री चीजें पटरी पर लाने की कोशिश कर रहे हैं. उनका पहला काम तो कश्मीर की सड़कों पर अमन लौटाना है. केंद्र की गुजारिश पर उमर ने अपने प्रशासन में फेरबदल भी किया है. अपने प्रमुख सचिव खुर्शीद गनई की जगह वे भरत व्यास को लेकर आए हैं, जिन्होंने दायित्व बोध, दक्षता और समन्वय में एक मिसाल पेश की है. अंतर्मुखी प्रमुख सचिव (गृह) सैमुअल वर्गीज की जगह जोशीले बी.आर. शर्मा को लाया गया है. कश्मीर के पुलिस महानिदेशक रहे एस.एम. सहाय को फिर से वही जिम्मा दिया गया है.
हिज्बुल मुजाहिदीन की कमर तोड़ने का श्रेय गृह मंत्रालय उन्हीं को देता है. लेकिन सरकार और उसकी इस नई टीम के सबसे बड़े रकीब गिलानी ही हैं. जमात-ए-इस्लामी और हुर्रियत के इस 81 वर्षीय नेता का हड़तालों में बड़ा हाथ होता है. उनकी असल ताकत है कश्मीरी युवाओं पर उनकी पकड़. शोपियां कांड के बाद के महीनों में जब सड़कों पर हिंसा चल रही थी, पुलिस उसे और बढ़ने से रोकने के लिए भारी बंदोबस्त करती थी. इससे दंगाई और उत्तेजित होते. पत्थरों के जवाब में पुलिस की गोलियां मिलतीं. मरने वालों की तादाद बढ़ने लगी. उमर के सियासी सलाहकारों ने मरहम लगाने के लिए पुलिस पर कोड़ा फटकारने की सलाह दी. पुलिसवालों को गिरफ्तार कर जेलों में डाला गया. इनमें एसपी तक शामिल थे.{mospagebreak}
कुछ पर हत्या के आरोप लगाए गए. सहाय ने गिलानी की हड़तालों के कैलेंडर को चुनौती दी. हुर्रियत नेता की हड़ताल के वक्त बेमियादी कर्फ्यू रहता. कश्मीर में सबसे लंबे समय तक चलने वाले कर्फ्यू के बाद इसने अनिश्चित भविष्य का अंदेशा पैदा कर दिया. श्रीनगर और गिलानी, दोनों का सब्र चुकने लगा. ऑपरेशन कर्फ्यू के साथ उमर की सरकार ने गिलानी के खिलाफ शिक्षा का कार्ड भी खेला. चार महीने से घाटी में कोई क्लास नहीं लगी थी. सीबीएसई के इम्तहान सिर पर थे. सरकार ने पुलिस की निगरानी में स्कूल खोलने की अपनी मंशा का ऐलान कर दिया. गिलानी ने तब भी हार नहीं मानी है. उन्होंने संगबाजों को अपना काम जारी रखने को कहा.
वैसे, आंकड़े भी उमर के रकीबों का ही साथ देते दिखते हैं. राज्य की पुलिस के मुताबिक, पिछले महीनों के उपद्रवों में हिंसा की 1,046 वारदात हुई हैं, 90 प्रदर्शनकारियों की जान गईं, 525 जख्मी हुए, एक पुलिसवाला मारा गया, 3,147 घायल हुए. इस दौरान 2,682 गिरफ्तािरयां हुई हैं. कश्मीर में राज्य और केंद्र के प्रति नफरत का एहसास खासा गहरा है.
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की सरबरा महबूबा मुफ्ती सईद उमर पर जनवरी, 2009 वाली उम्मीदों का गला घोंट देने का आरोप लगाते हुए उनके अकेलेपन का खुलासा करती हैं, ''किसी विरोध प्रदर्शन को अगर आप पैसा लेकर पथराव करने का वाकया बताते हुए उसकी मजम्मत करेंगे तो फिर तो आप तबाही को ही न्यौता दे रहे हैं. उन्होंने हर घर को जेल में तब्दील कर दिया है.''{mospagebreak}
महबूबा बेशक एकतरफा और पक्षपातपूर्ण बातें कर रही हैं लेकिन उनकी ये बातें पूरी तरह से गलत भी नहीं हैं. वे जोर देकर कहती हैं कि उमर ने खुद को मिले जनादेश के बाद हालात को अपने हाथ से निकल जाने दिया. घाटी में चीजें आने से रोकने के लिए जम्मू में जाम लगाए जाने पर कश्मीरियों के गुस्से पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया. भाजपा की अगुआई वाली अमरनाथ तीर्थ संघर्ष समिति के कार्यकर्ताओं ने श्रीनगर-जम्मू और 400 किमी लंबा जम्मू-पठानकोट राजमार्ग रोक दिया था. इससे घाटी में राशन, ईंधन और दवाओं का संकट खड़ा हो गया था.
कश्मीरियों में खानपान की तहजीब का प्रतीक मानी जाने वाली वजवान दावतों के लिए मांस और फाख्ते ही मिलने दुश्वार हो गए. तमाम निकाह रद्द करने पड़े. हस्तशिल्प, कालीन और शॉल वगैरह के निर्यात पर बुरा असर पड़ा, जिससे करीब 3,000 करोड़ रु. का नुकसान हुआ. इसी तरह से फल सड़ने से यहां के किसानों को करीब 100 करोड़ रु. का घाटा हुआ. केंद्र ने हालांकि हिंदुओं के साथ बातचीत से रास्ता तो निकाला लेकिन इस प्रक्रिया में कश्मीरी स्वाभिमान को गहरी चोट पहुंची.
उमर ने उस वक्त भी मरहम लगाने का कोई काम नहीं किया. कश्मीरियों में उनके प्रति नफरत पनपने की यह एक बड़ी वजह बना और अब वे उन्हें अपने बीच का नहीं मानते. महबूबा की राय में तो ''राज्य के लिए उन्हें 2,400 करोड़ रु. का रिलीफ पैकेज मिला. उन्हें उसी पर तो सब खेल करना था.''{mospagebreak}
आजादी के लिए होने वाले प्रदर्शनों का अलग-अलग वक्तों में अलग-अलग मतलब रहा है. आज की तारीख में इसका एक ही मतलब है-अब्दुल्ला परिवार से आजादी. मुख्यमंत्री ने प्रशासन को बदहाल होने दिया, शासन अपने कुछ चुनिंदा सलाहकारों के हाथों में सौंपे रखा और खुद ज्यादातर वक्त या तो दिल्ली में जमे रहे या फिर परिवार के साथ छुट्टियां मनाते रहे. फरवरी, 2009 में बोमाई में सेना की गोलीबारी में दो नागरिक मारे गए तब, महबूबा के अल्फाज में, उमर अपने परिवार के साथ गुलमर्ग में स्कीइंग कर रहे थे.
राज्यपाल ने फोन पर उनसे बात करने की कोशिश की लेकिन सारी कोशिशें नाकाम रहीं. उमर को एक बार फिर से आरोपों के कठघरे में खड़ा करके फुफकारते हुए महबूबा कहती हैं कि जून में उनकी शोपियां यात्रा के दौरान उमर ने पार्टी के गुंडों से उन्हें मरवाने की कोशिश की.
यह वही वक्त था जब दो महिलाओं के लापता हो जाने के बाद वहां लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था. बाद में दोनों की लाशें एक नहर से बरामद की गईं. लेकिन सल्वाटोर फेरागमो जूतों और पनेराइ घड़ियों के शौकीन उमर ने बड़ी मासूमियत के साथ यह सोच लिया कि प्रदर्शनकारियों की मांग के सिलसिले में दिखावे की कार्रवाई ही काफी है. यही कि बोमाई से पुलिस चौकी हटाना और घटना में लिप्त पुलिसवालों के खिलाफ कार्रवाई करना. उन्हें अपने दुश्मन की दूर-दूर तक कोई थाह ही नहीं थी. उनके इस तरह हाथ खड़े कर देने से आजादी का हांका लगाने वालों को बढ़ावा ही मिला. दूसरी तरफ पुलिस का मनोबल भी टूटा.{mospagebreak}तो क्या वे शासन करने वाले आखिरी अब्दुल्ला बनने जा रहे हैं? गुपकर रोड स्थित अपने आवास के धूप से नहाए बरामदे में उमर थोड़े भरे मन से मुस्कराते हुए कहते हैं, ''फिलहाल तो हर कोई मेरे ऊपर ही चाबुक चलाने को उतारू है. ठीक है, ऐसा ही सही.''
केंद्र का मानना है कि नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान अगर कश्मीर में हिंसा भड़की तो इससे दुनिया भर में भारत की बदनामी होगी. अमेरिकी विदेश विभाग ने घाटी में लोगों के मूड की थाह लेने के लिए अपने दो प्रतिनिधि यहां भेजे. फुसफुसाहट कुछ इस तरह की सुनाई दे रही है कि कांग्रेस कश्मीर के वित्त मंत्री रहीम राठर को अगला मुख्यमंत्री बनाना चाहेगी. इसका खास अर्थ है.
राठर के बारे में महबूबा भी कहती हैं कि वे नेशनल कॉन्फ्रेंस का होने के नाते नहीं बल्कि अपने बूते पर चुने गए हैं. ऐसे में कांग्रेस का मानना है कि राठर को चुनने से कश्मीर के युवाओं और यहां के नेताओं में यह संदेश जाएगा कि उमर पर अब भारत का भरोसा नहीं रहा.
उमर के यहां दीवारों पर लगी तस्वीरें शांत अतीत की याद दिलाती है. लेकिन खुद उनके चेहरे पर भविष्य का कोई संकेत नजर नहीं आता.