देशभर में जो तांडव मचा उसमें सबसे ज्यादा मौत मध्य प्रदेश में हुईं. जहां सात लोगों की जिंदगी दलित कानून की आग के चलते काल के गाल में समा गई. यूपी के फिरोजाबाद में भी प्रदर्शन के दौरान एक की मौत हुई. राजस्थान में एक और बिहार के हाजीपुर में भी हिंसक प्रदर्शन ने एक मासूम की जान ले ली.
आखिर सब कुछ पता होते हुए ऐसे हालात पैदा क्यों होने दिए गए?
देश की सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट में बदलाव वाला फैसला बीते 20 मार्च को सुनाया था. जस्टिस एके गोयल और जस्टिस यू.यू ललित ने ये फैसला दिया था. जिसके बाद से दलित समाज में कोर्ट के इस फैसले को लेकर विरोध किया जा रहा था. संविधान बचाओ संघर्ष समिति के नेतृत्व में दलित समाज के लोग देश के अलग-अलग हिस्सों में धरने-प्रदर्शन कर रहे थे. जिसके बाद 2 अप्रैल को भारत बंद बुलाया गया. प्रशासन को इसकी पूरी जानकारी थी. पंजाब सरकार ने सुरक्षा पुख्ता होने के दावे भी किए और एहतियातन बच्चों की परीक्षा भी रद्द की. लेकिन सोमवार को जब विरोध में दलित समाज सड़कों पर उतरा तो पंजाब से लेकर राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार और यूपी जंग का मैदान बन गया.
क्यों दंगाइयों को सड़क पर खुलेआम हिंसा की छूट दी गई?
देश में करीब 17 फीसदी दलित आबादी है. तमाम दलित संगठनों समेत राजनीति दलों ने भी इस बंद को समर्थन का ऐलान किया था. जिससे ये तय था कि बड़ी संख्या में लोग विरोध में उतरेंगे. इस तरह ही भीड़ में अप्रिय घटना होने की भी आशंका रहती है और राज्य सरकारों के साथ पुलिस-प्रशासन इससे अच्छी तरह वाकिफ होगा. लेकिन जब प्रदर्शनकारी सोमवार सुबह बाहर निकले तो उन्होंने जमकर तांडव मचाया और उन्हें रोकने वाली पुलिस सिर्फ कुछ ही जगह नजर आई.
क्या सरकार की पुलिस और सुरक्षाबल हिंसक भीड़ के आगे कम पड़ गए?
कानून-व्यवस्था राज्य सरकारों का विषय होता है, ऐसे में भारत बंद का शांतिपूर्ण तरीके से समापन भी उन्हीं की जिम्मेदारी थी. केंद्रीय खुफिया विभाग के अलावा एलआईयू के रूप राज्य सरकार का अपना खुफिया तंत्र होता है. ऐसे में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकारों को इसकी खबर न रही हो कि भारत बंद के दौरान कहां-कहां और कितनी तादाद में लोग जमा हो सकते हैं.
बावजूद इसके जो तस्वीरें सामने आईं, उसमें हिंसक के भीड़ के आगे पुलिस बेबस दिखी. सड़कों पर पुलिस से कहीं ज्यादा भीड़ नजर आई. पुलिस थानों को निशाना बनाया गया. पुलिसकर्मियों पर पत्थरबाजी की गई. देशभर में हिंसा भड़कने के बाद केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने राज्य सरकारों को हर प्रकार की मदद का वादा किया. ऐसे में अगर पहले से ही केंद्रीय फोर्स राज्य सरकारों को मुहैया कराई जाती तो मुमकिन है आज तस्वीर कुछ और ही होती.
क्या इन संगठनों के हिंसक प्रदर्शन के पीछे सियासत थी?
भारत बंद का समर्थन करने वाले सोमवार से ही ये दावे कर रहे हैं कि दलितों को बदनाम करने के लिए इस आंदोलन को हिंसक बनाया गया. कई जगह से इस हिंसा में राजनीतिक लोगों के शामिल होने की भी खबरें आई हैं.
मेरठ में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने सार्वजनिक तौर पर बताया है कि शहर में हिंसा के पीछे एक नेता की साजिश है, जो बहुजन समाज पार्टी के पूर्व विधायक हैं. फिलहाल, बीएसपी के पूर्व विधायक योगेश वर्मा को गिरफ्तार कर लिया गया है.
सबसे बड़ा और अंतिम सवाल ये है कि आखिर 10 बेगुनाह लोगों की मौतों की जिम्मेदारी किसकी है. क्योंकि कानून में बदलाव के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरे. भीड़ ने तांडव मचाया. पुलिस पर हमला किया गया. पुलिस ने लाठीचार्ज किया. फायरिंग भी की. इस पूरे संघर्ष में 10 जानें चले गईं. अब सवाल है कि फायरिंग करने वाली पुलिस जिम्मेदार है या कानून-व्यवस्था न संभाल पाने वाली राज्य सरकारें या फिर देरी से पुनर्विचार याचिका दायर करने वाली केंद्र सरकार या फिर अपने हक की लड़ाई के लिए प्रदर्शन करने उतरे दलितों को हिंसा के लिए उकसाने वाले राजनीति चमकाने वाले नेता. किसी की तो जवाबदेही तय होनी चाहिए?
बता दें कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और यूपी में बीजेपी की सरकार है, जबकि बिहार में जेडीयू के साथ बीजेपी की गठबंधन सरकार है. जबकि पंजाब में कांग्रेस सत्ता में है. खासकर एमपी, राजस्थान और यूपी में हिंसा का खुला खेल नजर आया.