संयुक्त राष्ट्र ने चौंका देने वाले कुछ आंकड़ों और निष्कर्षों के साथ एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें कहा गया है कि भारत में दलित और खासकर दलित महिलाएं पूरी तरह से हाशिये पर धकेल दी गयी हैं जो इस समाज के प्रति नजरिए की चरम स्थिति का उदाहरण हैं.
संयुक्त राष्ट्र की ‘विश्व सामाजिक स्थिति रिपोर्ट 2010’ में कहा गया है कि भारत, नेपाल और पाकिस्तान के समाज में जाति आधारित व्यवस्था के कारण निचली जाति के लोग बहिष्कार के शिकार हैं. हर दो वर्ष में तैयार होने वाली संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग की इस रिपोर्ट में 1981 से 2005 के बीच की जनसंख्या के आधार पर विश्व की सामाजिक स्थिति का आकलन किया गया है. हाल ही में नयी दिल्ली में जारी हुई इस रिपोर्ट में भारत के संदर्भ में कहा गया है कि देश में रहने वाले दलितों की खासकर सेहत के मामले में स्थिति काफी गंभीर है.
रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में दलितों से इतर अन्य जातियों की आबादी में 44 फीसदी बच्चे कम वजनी होते हैं, जबकि उचित खान पान नहीं मिलने के कारण दलितों के 54 फीसदी बच्चे कम वजनी होते हैं. अन्य जातियों में प्रति हजार शिशुओं में से 68 की मौत हो जाती है, जबकि इसके मुकाबले प्रति हजार दलितों में से 83 शिशु जन्म लेते ही दम तोड़ देते हैं. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि दलितों के हर एक हजार में से 119 बच्चों की पांच वर्ष या उससे कम उम्र में ही मौत हो जाती है, जबकि शेष आबादी में यह आंकड़ा प्रति हजार 92 बच्चों का है.
भारत में उंची जातियों के परिवारों में, दलित परिवारों में वस्तुओं के उपभोग पर प्रति परिवार होने वाले व्यय के मुकाबले 42 फीसदी ज्यादा खर्च होता है. अर्थशास्त्री और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की अर्थशास्त्र विभाग की प्रोफेसर जयती घोष ने कहा, ‘‘रिपोर्ट के निष्कर्ष वाकई चिंताजनक हैं और हम दलितों को रोजगार के अवसर मुहैया करा कर ही उनकी समस्याएं दूर कर सकते हैं. राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना ‘नरेगा’ के जरिये एक शुरुआत जरूर हुई है. इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में जिन लोगों को रोजगार के अवसर मिल रहे हैं, उनमें एक वर्ग दलितों का भी है. लेकिन हमें अब भी लंबी दूरी तय करनी है.’’
उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन इससे बड़ी समस्या यह है कि दलितों को राजनीति के केंद्र में रखा जाता है और उनकी बुनियादी जरूरतों पर हम ध्यान नहीं दे पाते. वर्तमान में दलितों के लिये सरकारें जो कर रही हैं, वह महज सांकेतिक है.’’ संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में भारतीय दलित महिलाओं की स्थिति पर विशेष तौर पर चिंता जतायी गयी है. इसमें कहा गया है कि दलित महिलाएं अपने समुदाय और परिवार में ही हिंसा का शिकार होती हैं. उनके साथ होने वाली हिंसा में शारीरिक प्रताड़ना, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, जबरन वेश्यावृत्ति, अपहरण, कन्याभ्रूण हत्या और घरेलू हिंसा शामिल है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि स्वामित्व के मामले में निचले तबके के लोगों को बेदखल कर दिया जाता है. विशेषकर निचली जाति की महिलाएं इसलिये प्रभावित होती हैं क्योंकि उन्हें पहले से हाशिये पर मौजूद अपने समुदाय के भीतर भी कम अधिकार प्राप्त होते हैं. यही कारण है कि उनका खराब आर्थिक स्थिति से उबरना अपनी ही जाति के पुरुषों के मुकाबले मुश्किल हो जाता है.
इस बारे में आर्थिक विकास से जुड़े मामलों के लिये संयुक्त राष्ट्र के सहायक महासचिव जोमो क्वामे सुंदरम कहते हैं, ‘‘हमने निचले तबकों की मदद के लिये बांग्लादेश में सूक्ष्म ऋण (माइक्रो क्रेडिट) के उदाहरण देखे हैं. ऐसी योजनाओं के जरिये निचले तबके के लोगों को अस्थायी तौर पर तो मदद मिल जाती है लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि इससे उनकी गरीबी दूर हो जाती है.’’ दक्षिण एशिया और उप सहारा देशों में रह रहे निचले तबके के लोगों की बड़ी आबादी के संदर्भ में उन्होंने कहा कि हमारा यह सुझाव है कि गरीब आबादी जहां रह रही है, उस भूखंड के कुछ हिस्से का उन्हें स्वामित्व दिया जा सकता है. इसके बाद वे उस भूखंड को रेहन (मॉटगेज) रखकर कर्ज ले सकते हैं और अपना कुछ कारोबार शुरू कर सकते हैं. निचले तबके के लोगों की स्थिति में हम ऐसे ही छोटे तरीकों के जरिये सुधार ला सकते हैं.