'कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया'
गालिब की ये पंक्तियां आज उन्हीं के घर और मकबरे की बदहाल स्थिति की हकीकत बयां कर रही हैं. उर्दू के महान शायर मिर्जा गालिब ने पुरानी दिल्ली के शाहजहांनाबाद के बल्लीमारान में 15 फरवरी 1869 को अपनी हवेली में अंतिम सांसें लीं और उन्हें चौसठ खंबा के पास हजरत निजामुद्दीन दरगाह के नजदीक ही दफनाया गया.
गालिब के इंतकाल के सौ साल बाद भी उनकी कब्र की पहचान कायम रखने के लिए कोई निर्माण कार्य नहीं किया गया, जब तक कि उनका एक बेहद प्रशंसक अंग्रेज उनकी कब्र की खोज करता हुआ सात समंदर पार से दिल्ली नहीं चला आया. गालिब की कब्र का कोई पता न पाकर उसने अखबार में इससे संबंधित एक लेख लिखा. तब जाकर इस बात का पता चला कि गालिब के इंतकाल के बाद से उनकी निशानी के तौर पर कोई जगह ही चिन्हित नहीं थी.
इसके बाद फिल्म अभिनेता शोहराब मोदी व हमदर्द के हकीम अब्दुल हमीद के प्रयासों से गालिब की कब्र पर एक सुंदर मकबरे का निर्माण तकसीम हो पाया. आज भारत की अन्य धरोहरों की ही तरह गालिब का मकबरा भी भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरेख में है लेकिन उसकी हालत बेहद खस्ता हो चली है.
मकबरे के प्रवेशद्वार की चाबियां सुरक्षा गार्डों को सौंप दी गई हैं और यहीं से दर्शकों की असली परेशानी शुरू होती है. जब 10 के करीब लोग गार्ड से चाबी के बारे में पूछ चुके तो तौकीर नामक उस बूढ़े ने आवाज लगाई, 'बाबू भाई..!' लेकिन कोई भी नहीं आया. फिर उसने चाबी को मग, गंदगी से काले हो चुके एक छाते तथा मिट्टी के टूटे हुए बर्तनों के बीच खोजना शुरू किया. और अंतत: चाबी छाते के अंदर मिली.
गालिब की हवेली की हालत भी कुछ खास बेहतर नहीं है. 130 वर्ग गज में फैली यह हवेली जर्जर हालत में पड़ी हुई है. यहां न रोशनी है न कोई जिंदगी. दिल्ली सरकार से कई बार अनुरोध किए जाने के बावजूद शहर के महान शायर की स्मृति में इस भवन की हालत सुधारने और सौंदर्यीकरण के लिए कुछ भी नहीं किया गया.
ताउम्र परेशानी झेलने वाले गालिब का अंत भी उतना ही कष्टमय रहा. अपनी हर प्यारी चीज से उन्हें हाथ धोना पड़ा. जब बचपन में थे, तब पिता अल्लाह के पास चले गए और किशोर वय के हुए तो बड़े भाई चल बसे. खुद गालिब के सात बच्चों में से कोई भी जीवित नहीं बचा. हारकर उन्होंने एक बच्चे को गोद लिया लेकिन जवान होते-होते उसकी भी मौत हो गई. इन त्रासदियों ने गालिब को अंदर तक तोड़ दिया लेकिन इसे अल्लाह की मर्जी मानकर वह उससे लड़े नहीं, बल्कि यह कहा...
गम-ए-हस्ती का असद किससे हो जुज मर्ग इलाज
शम्माअ हर रंग में जलती है सहर होने तक.
कहा जाता है कि गालिब एक बहुत बड़ी रियासत के वारिस थे लेकिन उन्हें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली दौलत का जरा भी गुमान नहीं था और इंसानी रिश्तों को वह कहीं ज्यादा तरजीह देते थे जो उनकी शायरी में भी झलकता है.
अपनी शायरी में कभी वह प्रेमी के तौर पर, कभी द्रष्टा के तौर पर तो कभी अल्लाह के आगे झुके हुए बंदे के तौर पर जीवन के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित करते हैं. गालिब के साथ बहुत सी विचित्रताएं भी थीं. गालिब के निकटवर्तियों के पास उनसे जुड़ी बहुत सी रोचक कहानियां हैं.
ऐसा कहा जाता है कि वह सारी रात चिराग की मद्धिम सी लौ में अपने खयालों में डूबते-उतराते हुए कपड़े के एक बड़े से टुकड़े के साथ खेलते हुए बैठे रहते थे. जब वह गजल के अशआरों से संतुष्ट हो जाते तो उसे याद रखने के लिए वह कपड़े में एक गांठ लगा देते थे. यही करते हुए वह सारी रात बिता देते थे.
अगले दिन जागने पर वह कपड़े की हर गांठ आहिस्ता-आहिस्ता खोलते जाते थे और रात में बनाई हुई पंक्तियां उन्हें याद होती जाती थीं. ऐसा गालिब ही कर सकते थे. अदब की दुनिया के बेताज बादशाह को सौ-सौ सलाम. पेश हैं गालिब की कुछ पंक्तियां...
लाज़िम था कि देखो मिरा रास्ता कोई दिन और
तन्हा गए क्यों अब रहो तन्हा कोई दिन और
मिट जाएगा सर, गर तिरा पत्थर न घिसेगा
हूं दर पर तिरे नासिया फर्सा कोई दिन और
आये हो कल, और आज ही कहते हो कि जाऊं
मानो, कि हमेशा नहीं अच्छा, कोई दिन और
जाते हुए कहते हो, कयामत को मिलेंगे
क्या खूब, कयाम़त का है गोया कोई दिन और
हां ऐ फ़लके-पीर जवां था अभी ‘आरिफ’
क्या तेरा बिगड़ता, जो न मरता कोई दिन और
तुम माहे-शबे-चारदहम थे, मिरे घर के
फिर क्यों न रहा घर का वह नक्शा कोई दिन और
तुम कौन से ऐसे थे खरे, दादो-सितद के
करता मलकुल-मौत तक़ाज़ा, कोई दिन और
मुझसे तुम्हें नफरत सही नैयर से लड़ाई
बच्चों का भी देखा न तमाशा कोई दिन और
गुजरी न बहर हाल यह मुद्दत खुशो-नाखुश
करना था, जवांमर्ग, गुज़ारा कोई दिन और
नांदा हो, जो कहते हो, कि क्यों जीते हो ‘गालिब’
क़िस्मत में है, मरने की तमन्ना कोई दिन और