यूं तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा के लिए मशहूर रहे हैं लेकिन इस बार जेएनयू में कुत्तों पर बहस का दौर जारी है.
2008 में एक कुत्ते को मारे जाने की घटना के बाद मचे बवाल के बाद जेएनयू में कुत्तों की तादाद बढ़ती ही जा रही है और इनसे तंग आकर छात्रों के दो गुट बंट गए हैं. एक गुट कुत्तों की हिफाजत के पक्ष में है जबकि दूसरा इनके खिलाफ.
दरअसल, आवारा कुत्तों का लगातार शिकार बन रहे नेत्रहीन विद्यार्थियों ने अपनी समस्या के समाधान के लिए एक बहस छेड़ी है.
जेएनयू में नेत्रहीन विद्यार्थियों के फोरम के संयोजक राशिद के मुताबिक ‘‘यह एक मनोवैज्ञानिक बीमारी है जिसे पशु प्रेम कहते हैं. सड़कों के बीचों-बीच कुत्तों को सोए हुए पाया जा सकता है.’’ राशिद ने कहा ‘‘वे सीढ़ियों पर भी सोए पाए जाते हैं और वातानुकुलित एटीएम मशीनें भी इनसे नहीं बची हैं. यदि कोई उन्हें तंग करे तो वे काटने से नहीं हिचकते.’’ जेएनयू कैंपस में मौजूद अनेकों ढाबे कुत्तों के प्रिय ठिकाने हैं. उन्हें विद्यार्थियों का छोड़ा हुआ खाना तो मुहैया कराया जाता ही है साथ में खासतौर पर उनके लिए खाने खरीदे भी जाते हैं.
जेएनयू में छात्रों के एसोसिएट डीन प्रो. सच्चिदानंद सिन्हा ने कहा ‘‘यह नेत्रहीन छात्रों की एक वास्तविक समस्या है. उन्हें आवारा कुत्तों का शिकार होना पड़ रहा है जिनकी संख्या कैंपस में लगातार बढ़ती ही जा रही है.’’ उन्होंने कहा ‘‘जेएनयू के लोग पशु प्रेमी हैं. और आवारा कुत्तों की बढ़ती तादाद पर लगाम लगाने में हम कामयाब नहीं हो पाए हैं.
इस मुद्दे पर कई गैर सरकारी संगठनों और दिल्ली नगर निगम से बात करने के अलावा हम अपने विधि विभाग से भी सलाह मशविरा कर रहे हैं.’’ प्रो. सिन्हा ने मजाकिया अंदाज में कहा कि कैंपस के कई शिक्षक आवारा कुत्तों को ‘बुद्धिजीवी कुत्ते’ कहते हैं क्योंकि उनमें से कई प्रोफेसर भी पहले इन कुत्तों का शिकार बन चुके हैं.
हाल ही में प्रकाशित एक पैंफलेट में जेएनयू के नेत्रहीन छात्रों ने आवारा कुत्तों के खिलाफ चरमपंथी कदम उठाने की धमकी दी थी जिसमें उन्हें जहर देकर मार डालना भी शामिल था.
नेत्रहीन छात्रों के फोरम की एक सदस्य अन्नावरम ने कहा ‘‘हमारे कहने का मतलब वैसा बिल्कुल नहीं था. इसका मकसद छात्रों को इस मुद्दे की गंभीरता का अहसास कराना था ताकि वे इसके समाधान के लिए काम करें.’’