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दिल्ली: क्या बीजेपी के डर के आगे जीत है?

बीजेपी अपने आप से डरी हुई है या फिर ‘आप’ से? यानी आम आदमी पार्टी से. शायद, ‘आप’ और अपने आप दोनों से. अपने आप से यानी पार्टी कार्यकर्ताओं से?

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किरण बेदी
किरण बेदी

बीजेपी अपने आप से डरी हुई है या फिर ‘आप’ से? यानी आम आदमी पार्टी से. शायद, ‘आप’ और अपने आप दोनों से. अपने आप से यानी पार्टी कार्यकर्ताओं, खासकर दिल्ली बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं से? लगता है हाल के दिनों में आए सर्वे रिपोर्ट्स ने बीजेपी के इस डर को कुछ ज्यादा ही बढ़ा दिया, तभी तो पार्टी को अपनी स्ट्रेटेजी बदलने पर मजबूर होना पड़ा .

आखिर डर किस बात का?
अरविंद केजरीवाल की काट के तौर पर बीजेपी ने किरण बेदी को मैदान में उतार तो दिया , लेकिन वह वोटर से ठीक से कम्युनिकेट नहीं कर पा रही हैं. केजरीवाल जहां अपनी हर बात समझाने में कामयाब हो रहे हैं, वहीं किरण बेदी लोगों से कनेक्ट नहीं हो पा रही हैं. केजरीवाल झुग्गी बस्तियों और लोअर मिडिल क्लास के बीच अपनी पैठ बढ़ाते जा रहे हैं, लेकिन बीजेपी के लिए अब भी ये टेढ़ी खीर बना हुआ है. किरण बेदी को ऊपर से थोपे जाने और टिकट बंटवारे को लेकर पार्टी में शुरू हुई कलह खत्म नहीं हो पा रही है. दिल्ली बीजेपी के नेता प्रचार में हाजिरी तो लगा रहे हैं लेकिन काम ऊपरी मन से कर रहे हैं. अगर बीजेपी को ये डर सता रहा था तो स्ट्रेटेजी बदलने का अलावा कोई चारा भी न था.

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डरो तो डिफेंस नहीं, ऑफेंस अपनाओ
केजरीवाल शुरू से ही आक्रामक राजनीति में विश्वास रखते हैं. ऐसे में केजरीवाल या उनकी टीम रोज किसी न किसी मुद्दे को लेकर विरोधियों पर हमला बोल देती है – और बीजेपी नेता पूरे दिन बस बचाव वाले बयान देते रहते थे. अब केजरीवाल के खिलाफ बीजेपी अटैकिंग मोड में है – और पार्टी की ओर से रोजाना पांच सवाल दागे जा रहे हैं. हालांकि, केजरीवाल काउंटर अटैक में भी माहिर हैं. बीजेपी के उस चुनावी विज्ञापन पर आम आदमी पार्टी ने उसे कठघरे में खड़ा कर दिया है, जिसमें अन्ना के फोटो को माला पहनाई दी गई है. अब बीजेपी अपने हमले की धार को कितना तेज रख पाती है ये बात सबसे ज्यादा मायने रखती है.

‘वोटकटवा’ कितना मददगार?
चुनावों में ‘वोटकटवा’ फॉर्मूला बरसों से प्रैक्टिस में है जिसमें विरोधी का वोट काटने के लिए डमी कैंडिडेट खड़े किए जाते हैं. बीजेपी के रणनीतिकारों को लगता है कि अगर कांग्रेस लोगों को अपनी ओर खींचेगी तो आप का वोट कटेगा – इसका फायदा सीधा बीजेपी को होगा. इसीलिए केजरीवाल के प्रति अटैकिंग और कांग्रेस के प्रति सॉफ्ट रहने की स्ट्रेटेजी अपनाई गई है. बीजेपी को इसका कितना फायदा होता है ये आला कमान की सूझ-बूझ और उनकी योजनाओं के प्रभावी अमल पर निर्भर करता है.

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सपोर्ट सिस्टम कितना प्रभावी?
लोकसभा की तरह दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी संघ सपोर्ट सिस्टम काम में जुट गया है. स्वयंसेवकों को इस चुनाव में एक कबड्डी टीम की तरह जूझारू रवैया अख्तियार करने को कहा गया है. उनसे कहा गया है कि जिस तरह कबड्डी में टारगेट हिट करने तक सांस को रोके रखते हैं, उसी तरह चुनावी मैदान में डटे रहना है. दिल्ली की 70 विधान सभाओं के लिए संघ के 70 प्रचारक तैनात हैं. अमित शाह ने संघ के भरोसेमंद लोगों को लेकर जो टीम बनाई है वो सीधे उन्हीं को रिपोर्ट कर रही है. बीजेपी के लिए ये सपोर्ट सिस्टम शायद सबसे मजबूत है. दिल्ली में ये सिस्टम क्या कमाल दिखा पाता है ये तो नतीजे ही बताएंगे.

नई रणनीति कितनी दमदार?
किरण बेदी को दिल्ली के मुख्यमंत्री पद के लिए बेस्ट कैंडिडेट साबित करने के लिए बीजेपी के पास हफ्ते भर का वक्त है. इस दौरान 250 रैलियों का प्लान है. यानी दिल्ली की 70 विधानसभाओं के लिए रोज करीब 35 रैली. पार्टी ने चुनाव में दो तिहाई सीटें जीतने का टारगेट रखा है. जैसे युद्ध में सेना के तीन कमांडर होते हैं उसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह खुद मोर्चा संभाल लिया है.

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बीजेपी की चुनौती फिलहाल यही है कि जैसे भी हो डर के आगे की जीत को हासिल करो, लेकिन क्या ये राह इतनी आसान है? क्या ‘पांच साल केजरीवाल’ के जवाब में ‘केजरीवाल से पांच सवाल’ ही बीजेपी का ब्रह्मास्त्र है जिसमें वह चाहेगी की चुनाव तक मीडिया और वोटर को उलझाए रखो, आखिर एक हफ्ता बीतने में वक्त ही कितना लगता है? शायद हां, और शायद नहीं भी!

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