पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में एनआरएस मेडिकल कॉलेज के जूनियर डॉक्टर की पिटाई के बाद देश भर में तूफान खड़ा हो गया. आरोपियों पर समय रहते एक्शन न होने का आरोप लगाते हुए सरकार के खिलाफ डॉक्टर लामबंद हो गए. इसे कार्यस्थल पर सुरक्षा का मुद्दा बनाते हुए कोलकाता से लेकर दिल्ली और देश के कोने-कोने में सरकारी चिकित्सक हड़ताल पर चले गए. सरकारी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाएं ठप सी हो गईं. मरीजों का बुरा हाल हो गया.
इलाज के अभाव में भटकते मरीजों और उनके घरवालों की मार्मिक तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर वायरल हुईं. पश्चिम बंगाल में सोमवार को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ओर से सुलह की कोशिशों के बाद हफ्ते भर से जारी हड़ताल थमी. उधर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन की ओर से चिकित्सकों की सुरक्षा के लिए नया कानून लाने के आश्वासन के बाद देश भर के सरकारी चिकित्सक भी काम पर लौट आए हैं. अब लाख टके का सवाल है कि इतनी बड़ी हड़ताल से आखिर चिकित्सकों को मिला क्या? सवाल इसलिए भी अहम है कि इस बार आईएमए की हड़ताल राष्ट्रव्यापी रही और कई दिनों तक चली.
हड़ताल से आगे क्या कुछ फर्क पड़ेगा, चिकित्सक सुरक्षित होंगे? आजतक डॉट इन के इस सवाल पर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन(आईएमए) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. प्रगनेश सी जोशी कहते हैं कि फर्क तो पड़ना चाहिए. कार्यस्थल पर सुरक्षा चिकित्सकों की कोई मांग नहीं है, यह उनका अधिकार है और शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी है सुरक्षा देने की. डॉ. जोशी ने कहा कि हड़ताल के दौरान जिन मरीजों की मौत हुई, उनसे आईएमए की पूरी संवेदनाएं हैं, मगर हमारी संवेदना उस युवा सर्जन से भी है, जो भीड़ की पिटाई से गंभीर रूप से घायल होने पर अब सर्जरी करने के भी लायक नहीं है. चिकित्सक की तस्वीर देखकर हम जैसे डॉक्टर साथी विचलित हो जाते हैं.
डॉ. जोशी यह आरोप खारिज करते हैं कि हड़ताल के दौरान इमरजेंसी सेवाएं भी ठप रहीं. उनका कहना है कि इमरजेंसी सेवाएं पहले की तरह ही जारी रहीं. लगातार हो रही मारपीट की घटनाओं के कारण चिकित्सक इस बार हड़ताल करने के लिए मजबूर थे.
यूपी में चिकित्सकों के मुद्दों पर मुखर रहने वाले और आईएमए, बरेली के अध्यक्ष डॉ. प्रमेंद्र माहेश्वरी कहते हैं कि मेडिकल प्रोफेशन जैसे-जैसे ज्यादा व्यावसायिक हुआ है तो इलाज का खर्च भी बढ़ा है. ऐसे में मरीज के घरवाले सौ प्रतिशत रिजल्ट चाहते हैं. जबकि एक ही बीमारी वाले सभी मरीजों के मामले में आउटपुट एक जैसा नहीं हो सकता. हर मरीज की क्षमताएं अलग होती हैं. पश्चिम बंगाल में उस बुजुर्ग के बचने की संभावना नहीं थी. ऐसे में मौत का दोष डॉक्टर पर मढ़कर हमला करना अराजकता के सिवाय कुछ नहीं है.
हड़ताल से क्या मिला? इस सवाल पर डॉ. माहेश्वरी कहते हैं कि यह लड़ाई मरीजों और डॉक्टरों के बीच थी ही नहीं, यह लड़ाई उस दूषित मानसिकता को लेकर थी, जो हर मौत पर चिकित्सकों पर आक्रोश उतारती है. इस हड़ताल ने आम जनता से लेकर सरकारों तक को चिकित्सकों की सुरक्षा के प्रति संवेदनशील बनाया है. अब सभी को लगा है कि चिकित्सकों को नुकसान पहुंचाकर हम देश और समाज का ही नुकसान कर रहे हैं. पश्चिम बंगाल की घटना ने पहली बार राष्ट्रव्यापी रूप से चिकित्सकों को एकजुट कर दिया. अब चिकित्सक सुरक्षा को लेकर सरकार के भरोसे नहीं हैं, बल्कि खुद सजग हुए हैं. अस्पतालों में अपने स्तर से बाउंसर्स तैनात कर रहे हैं.
कानून बना, मगर पुलिस नहीं करती इस्तेमाल
अस्पतालों में चिकित्सकों पर हमले की बढ़ती घटनाओं को रोकने के लिए 2013 में मेडिकल प्रोटेक्शन एक्ट बना. उत्तर प्रदेश सहित देश के 19 राज्यों ने इस एक्ट को लागू किया है. मगर इस एक्ट के तहत कैसे कार्रवाई होगी, इसको लेकर पुलिस को कोई ट्रेनिंग नहीं दी गई. यही वजह है कि हमले की घटनाओं को पुलिस सामान्य मुकदमों की तरह की निपटाती है. आईएमए के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. प्रगनेश कहते हैं कि कानून का सही से इस्तेमाल हो तो चिकित्सकों पर हमले की घटनाएं थम सकतीं हैं. डॉ. प्रमेंद्र माहेश्वरी कहते हैं कि एक्ट के तहत तोड़फोड़ पर तीन गुना जुर्माना के साथ दोष सिद्ध होने पर तीन साल की सजा के प्रावधान हैं. मगर पुलिस कभी घटना होने पर इसका इस्तेमाल ही नहीं करती. डॉ. माहेश्वरी को याद ही नहीं है कि अब तक किसी मामले में पुलिस ने इस एक्ट का इस्तेमाल किया हो.