रुपये की ऐसी दुर्गति तो आजतक नहीं हुई. 62 रुपये के बराबर हो गया एक डॉलर. सेंसेक्स की कमर टूट गई है और आम आदमी सोच रहा है उसका क्या होगा. देश की अर्थव्यवस्था का जो हाल हुआ है उससे तो यही लगता है कि उसका कुछ नहीं हो सकता. क्योंकि होगा तो तब जब कोई करना चाहेगा. फिलहाल सरकार चुनाव के इंतज़ार के अलावा कुछ नहीं कर रही है.
1 डालर की किमत क्या जानो मनमोहन बाबू
1947 - 1 रुपया
1970 - 7.5 रुपया
1980 - 7.9 रुपया
1990 - 17.9 रुपया
1991 - 24.5 रुपया
1996 - 35.5 रुपया
1999 - 42 रुपया
2004 - 44 रुपया
16 अगस्त 2013 - 62 रुपया
सवाल कई हैं. मसलन...
- क्या मनमोहन-चिदबंरम की जोड़ी फेल है?
- क्या देश की इकोनॉमी का बंटाधार इसी जोड़ी ने किया?
- क्या शेयर बाजार को इस जोड़ी ने ही बर्बाद किया?
- क्या डालर के मुकाबले रुपया इसी जोड़ी के वक्त बर्बाद हुआ?
यह ऐसे सवाल हैं जो दो दशक बाद एक बार फिर उसी खुले बाजार के खेल में उभरे हैं जिसे 1991 में शुरू भी मनमोहन-चिदबंरम जोड़ी ने किया और दो दशक बाद अपनी ही बनायी इकोनॉमी को संभाल पाने में दोनों फेल साबित हो रहे हैं.
यह कोई संयोग नहीं है कि आजादी के बाद से डॉलर के मुकाबले रुपया तभी गिरा जब मनमोहन सिंह देश के वित्त मंत्री थे या फिर आज की तारीख में प्रधानमंत्री हैं. 1991 में जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने तो 24 रुपये के बराबर एक डालर था और 1996 में जब मनमोहन सिंह ने कुर्सी छोड़ी तब रुपया डालर के मुकाबले 35 रुपये पार कर चुका था. और 2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो रुपया एक डालर के मुकाबले 44 रुपये था और 2013 में यह 62 रुपये पहुंच चुका है.
शेयर बाजार के खेल में फंसा आम आदमी
मनमोहन सिंह ने इसी दौर में इकोनॉमी का आधार शेयर बाजार को बनाया और शेयर बाजार के खेल में आम आदमी फंसा और सबकुछ गंवाकर खाली हाथ हुआ. गौर करने वाली बात तो ये है कि पहली बार मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुये ही सिक्यूरटी स्कैम (इसे शेयर घोटाले के नाम से भी जाना जाता है) हुआ और पहली कुर्सी चिदबरंम की ही गई थी जिनपर फैयरग्रोथ कंपनी के पीछे खड़े होकर शेयर बाजार को प्रभावित करने का आरोप लगा था. लेकिन खास बात यह भी है कि उस वक्त मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री चिदबरंम की वकालत की थी और सात महीने के भीतर चिदबंरम का इस्तीफा वापस भी हो गया था. और आज जब 700 प्वाइंट से ज्यादा शेयर बाजार गिरा तो वित्त मंत्री चिदबरंम ने भारत की अर्थव्यस्था को पुख्ता बनाया लेकिन शेयर बाजार विशेषज्ञ एक बार फिर स्कैम ही देख रहे हैं.
अगर ध्यान दें तो जिस मुनाफे के तंत्र को विकसित अर्थव्यवस्था का पैमाना मनमोहन सिंह ने माना वही पहली बार गर्त में जा रहा है क्योंकि शेयर बाजार से लेकर रुपये को मजबूत करने के लिये विदेशी निवेश पर ही भरोसा किया गया. और मौजूदा वक्त में विदेशी निवेश ही नहीं आ रहा है क्योंकि मुनाफा देने की स्थिति में ना तो शेयर बाजार है और ना ही शेयर बाजार पर टिके कारपोरेट या इंडस्ट्री. और विदेशी निवेश का पहला मंत्र ही तुरंत मुनाफा कमाना होता है.
जब अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने की मनमोहन की आलोचना
साल भर पहले ही उसी दुनिया की मीडिया ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को असफल करार दिया था जिस दुनिया में मनमोहन जाने माने अर्थशास्त्री के तौर पर जाने जाते रहे. टाइम ने अंडरएचीवर कहा था तो द इंडिपेन्डेंट ने कमजोर और वाशिंगटन पोस्ट ने त्रासदी शब्द को मनमोहन सिंह के साथ जोड़ा था. और तो और अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट संस्था फिच और स्टैंडर्ड पूअर्स ने मनमोहन सिंह की इकोनॉमिक पॉलिसी को नकारात्मक, स्थिर करार देते हुये क्रेडिट रेटिंग में कटौती तक की. सवाल है कि अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह चूके कहां जो भारत के अनुकूल अर्थव्यवस्था को राजनीतिक व्यवस्था के तहत ढाल नहीं पाये.
मिलती रही कॉरपोरेट सेक्टर को छूट दर छूट
असल में मिसमैनेजमेंट का बड़ा आधार अगर विदेशी निवेश को ही विकास का मंत्र मानना है तो सरकार का कॉरपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे नतमस्तक होना भी है. मनमोहन की इकोनॉमी ने कैसे देश के भीतर आर्थिक खाई बढ़ायी और कैसे आम आदमी की तुलना में कॉरपोरेट सेक्टर को छूट दर छूट दी यह उन आंकड़ों से भी समझा जा सकता है जो यूपीए-2 का सच है.
2009 से 2012 के बीच कॉरपोरेट सेक्टर को कस्टम में 6,21,890 करोड़ की सब्सिडी दी तो एक्साइज में 4,23,294 करोड़ की छूट दी. और टैक्स में 1,98,789 करोड़ की छूट दे दी. यानी आम लोगों को मिलने वाली सब्सिडी पर सवाल उठाने वाले इकोनॉमिस्टों ने कभी कॉरपोरेट या इंडस्ट्री को दी जाने वाली सब्सिडी या छूट को लेकर कोई सवाल नहीं उठाया. यह छूट किस हद तक दी जाती रही है इसका अंदाजा 2012-13 में इंडस्ट्री से ली गई कस्टम ड्यूटी और एक्साइज में दी गई छूट से भी समझा जा सकता है.
आलम यह है कि पिछले बरस सरकार ने कस्टम से कमाई की 1,46,000 करोड़ की और छूट दी 2,76,093 करोड़ की. इसी तरह एक्साइज में इंडस्ट्री को छूट दी 2,12,177 करोड़ की और कमाई की सिर्फ 1,53,000 करोड़ की. यानी सरकार को जहां से कमाई होनी चाहिये और उस कमाई से जिस इन्फ्रास्ट्रक्चर को सरकार को सुधारना चाहिये था उसे ही अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने खारिज कर दिया. यानी भारत निर्माण का नारा लगाने वाले मनमोहन सिंह सरकार का सच यह भी है कि भारत निर्माण के प्रचार प्रसार पर ही बीते पांच बरस में 35,123 करोड खर्च कर दिये गये. जबकि इसी दौर में सरकार शिक्षा से लेकर स्वास्थय के इन्फ्रस्ट्रक्चर पूरा ना कर पाने के लिये पैसा ना होना का रोना रोती रही.