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खानाखराब: दावोस में सिर धुनते ये 'अनर्थशास्‍त्री'...

स्विट्जरलैंड का छोटा-सा शहर दावोस हर साल इस महीने अचानक बड़ा हो जाता है. रुई के फाहे की तरह गिरती बर्फ के बीच आर्थिक दुनिया के धुरंधर आ धमकते हैं. वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम शुरू होता है. दुनिया के कई राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, वित्त और वाणिज्य मंत्री, बड़े उद्योगपति, निवेशक, अर्थशास्त्री तो आते ही हैं, बहुत सारे अनर्थशास्त्री रायबहादुर भी आते हैं.

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पी. चिदंबरम (फाइल फोटो)
पी. चिदंबरम (फाइल फोटो)

स्विट्जरलैंड का छोटा-सा शहर दावोस हर साल इस महीने अचानक बड़ा हो जाता है. रुई के फाहे की तरह गिरती बर्फ के बीच आर्थिक दुनिया के धुरंधर आ धमकते हैं. वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम शुरू होता है. दुनिया के कई राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, वित्त और वाणिज्य मंत्री, बड़े उद्योगपति, निवेशक, अर्थशास्त्री तो आते ही हैं, बहुत सारे अनर्थशास्त्री रायबहादुर भी आते हैं.

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भारत से इस साल चिदम्बरम 124 लोगों का बेड़ा लेकर गए हैं, पर सुनते हैं गर्क हुआ है. उभरती अर्थव्यवस्था का तमगा लिए भारत इस सम्मेलन के केन्द्र में होता था, इस बार हाशिए पर है. अर्श से फर्श पर आए लोग विमर्श कर रहे हैं कि ये कहां आ गए हम, यूं ही साथ-साथ चलते...भारत की अर्थव्यवस्था को क्या हो गया कि दावोस पर हमारा दावा कमजोर हो गया?

भैया दावोस तो छोड़िए, देवास में भी कोई माथा नहीं खपा रहा, क्योंकि हम जहां हैं, वहां से हमको भी, कुछ हमारी खबर नहीं आती. भारत ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां जिन्दगी चल जाए काफी है. क्योंकि जब राजनीति मंच पर आती है, तो अर्थनीति के लिए नेपथ्य में भी संभावना नहीं रहती. बाकी समय अर्थ ही अर्थ है, बाकी सब व्यर्थ है. चुनाव के समय अर्थ का अनर्थ है. चुनाव के चौराहे पर दिशा तय नहीं करते, चाय की चुस्कियां लीजिए.

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भाषणों में अर्थव्यवस्था की बात होगी, चुटकी भर नमक के साथ उसे भी चखिए, क्योंकि हमारे नेता चुनाव में जो कहते हैं, जरूरी नहीं वो चुनाव के बाद करें भी. किसी ने आपको समझाने की कोशिश नहीं की कि विदेशी निवेश देश के लिए अच्छा भी हो सकता है. मुफ्त का आटा अर्थव्यवस्था के लिए जहर हो जाएगा या बिजली बिल माफ हो जाए, तो एक दिन करंट मारेगा. कौन समझाए, चलो जो लोकप्रिय हो, वही कह डालेंगे. अव्वल तो ज्यादातर नेता इकॉनमी का गणित जानते नहीं. उनका पूरा फोकस जाति और धर्म के गणित में लगा रहता है. जोड़-तोड़ की राजनीति करने वाले बजट में भी जोड़-तोड़ कर ही लेते हैं. काम चल जाता है. काम चलाने की आदत धीरे-धीरे कामचलाऊ संस्कृति बन जाती है. सब चलता है, इस 'चलता है' संस्कृति में.

नेताजी को दोष देने से पहले जनताजी भी थोड़ा अपने गिरेबान में झांकें. हम नेताजी से पूछते ही नहीं हैं, क्योंकि हमको भी जात-पात के प्रपात में नहाने में बड़ा मजा आता है. इकॉनमी की गहराइयों में गोते लगाने से मोती मिल सकता है, पर हम तेजी से विकसित हो रहे चीन और मलेशिया की मोतियों से रश्क करते हैं...और दावोस में घटती दमक पर सिर धुनते हैं.

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