फेसबुक पर लोकतंत्र को चोट पहुंचाने का आरोप लगा है. डेटा स्कैंडल में आरोप लगे हैं कि फेसबुक ने क्विज ऐप की मदद से लगभग 5 करोड़ फेसबुक यूजर्स की निजी जानकारी शेयर की. यह डेटा कैम्ब्रिज एनालिटिका तक पहुंचा और उसने इसका इस्तेमाल अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में वोटरों को माइक्रो टारगेट कर प्रभावित करने के लिए किया.
इस स्कैंडल के बाहर आने पर दुनियाभर की एजेंसी, संस्थाएं और लोग फेसबुक के साथ अपने रिश्ते पर फिर से विचार कर रहे हैं. हालांकि भारत में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है. जब एक तरफ जहां फेसबुक पर लोकतंत्र और उसमें होने वाले चुनावी प्रक्रियाओं को नुकसान पहुंचाने के आरोप लग रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत का चुनाव आयोग कर्नाटक चुनाव में फेसबुक के साथ मिलकर काम करेगा. ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि ऐसा क्यों किया जा रहा है?
इस विवाद के लिए खुद फेसबुक के सीईओ मार्क जकरबर्ग ने माफी मांगी है और सबकुछ ठीक करने का आश्वासन दिया है. ब्रिटेन के सांसद जकरबर्ग से पूछताछ करना चाहते हैं. उनको संदेह है कि फेसबुक ने उनके देश में भी चुनावी प्रक्रिया प्रभावित करने की कोशिश की है. अमेरिका में यही करने की सोच रहा है और मार्क जकरबर्ग ने सहमति भी दी है. वहीं अमेरिका की रेगुलेटिंग एजेंसी एफटीसी भी यह जांच कर रहा है कि क्या फेसबुक ने उनकी गोपनीयता के समझौते का उल्लंघन किया है, जो उसने सरकारी अधिकारियों के साथ हस्ताक्षर किए थे.
विश्व की जाने मानी ब्राउजर Mozilla ने भी प्राइवेसी की चिंताओं की वजह से खुद को फेसबुक एड नेटवर्क से अलग कर लिया है. फरहान अख्तर जैसे कई पर्सनैलिटिज, Tesla कंपनी जैसी कई संस्थाओं ने फेसबुक पेज, अकाउंट डिलिट कर दिए हैं. जर्मन बैंक कॉमर्जबैंक और ऑडियो प्रोडक्ट कंपनी सोनोज ने भी खुद को फेसबुक के विज्ञापनों से बाहर कर लिया है. #DeleteFacebook हैशटैग भी ट्रेंड कर लिया है.
ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि चुनाव आयोग उस फेसबुक के साथ काम करने के लिए क्यों हामी भरी है, जिसके ऊपर अनैतिक और अवैध तरीके से लोगों की पर्सनल जानकारी और डेटा को शेयर कर वोटिंग प्रक्रिया को प्रभावित करने के आरोप लगे हैं.
फेसबुक को सब कुछ अच्छा करने के लिए जबरदस्ती नहीं कहा जा सकता है. हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया लोकतंत्र के लिए कई अद्भुत नजारे पेश कर सकते हैं. चुनाव आयोग भी शायद यही मान रहा है. हालांकि खुद फेसबुक को इस पर यकीन नहीं है. कुछ महीने खुद फेसबुक ने बताया कि वह लोकतंत्र के लिए हमेशा अच्छा नहीं रह सकता. फेसबुक प्रोडक्ट मैनेजर समिध चक्रवर्ती ने फेसबुक कंपनी के आधिकारिक पेज पर लिखा था कि काश वह इस बात की गारंटी दे सकते कि फेसबुक की अच्छाइयां हमेशा बुराइयों पर भारी पड़ेंगी, पर वह ऐसा नहीं कह सकते.
यह होता सही कदम
आमतौर पर जब कभी किसी कंपनी पर आरोप लगते हैं तो आरोपों की जांच तक उसके साथ संबंध को रोक देना चाहिए. हो सकता है कि रूस द्वारा अमेरिकी चुनाव को प्रभावित करने या क्रैम्ब्रिज एनेलिटिका स्कैंडल में फेसबुक का हाथ न हो. हालांकि जांच पूरी होने तक उसके साथ रिश्तों को जांच पूरी होने तक रोका जाना चाहिए था. खासकर उन संस्थाओं से जो नैतिकता और जवाबदेहीपर विश्वास करती है, से ऐसी उम्मीदें जरूर थी. चुनाव आयोग कोई प्राइवेट संस्था या छोटी संस्था नहीं है. भारत में कोई भी चुनाव कोई छोटा सर्वे नहीं होता है. उससे लाखों करोड़ों लोगों का भविष्य दांव पर लगा होता है. भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. ऐसे में जब पूरा विश्व इस बात की जांच कर रहा है कि फेसबुक ने लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाया या नहीं ऐसे में भारत का चुनाव आयोग उसके साथ खड़ा और काम करता नहीं दिख सकता है.
ऐसे में आदर्श स्थिति यह होती कि चुनाव आयोग फेसबुक के साथ अपने रिश्तों को रिव्यू करता और जांच करता कि बाकी संस्थाएं और लोग चुनावी प्रक्रिया में फेसबुक का किस तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. क्या वह नैतिक या कानूनी है? कैम्ब्रिज एनेलिटिका के पूर्व कर्मचारी और डेटा लीक स्कैंडल के विशलब्लोअर क्रिस्टफर विली ने कबूल किया है कि उसकी पूर्व कंपनी भारत के चुनावी प्रक्रिया पर काम कर रही थी. यह एक खतरनाक और गंभीर आरोप है. इसकी जांच चुनाव आयोग को करनी चाहिए थी और जांच पूरी होने के बाद जब इस बात की तसल्ली हो जाती कि फेसबुक लोकतंत्र के लिए सही है, तभी उसके साथ काम करना चाहिए था. वहीं दूसरी तरफ चुनाव आयोग के चीफ ओपीरावत फेसबुक के इस स्कैंडल को भ्रमित और बढ़ा चढ़ाकर पेश करने वाला बताया है. जबकि असलियत यह है कि फेसबुक ने माफी किसी भ्रमित और बढ़ा चढ़ाकर पेश करने वाले स्कैंडल के लिए नहीं मांगी है.