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चला गया 'जाने की जिद न करो' कहने वाला, अलविदा हबीब वली मोहम्मद

हबीब वली जब गाया करते थे तो उनकी जुबान की मिठास तीर-ए-नीमकश होकर सुनने वालों के दिलों में बची रह जाती थी. 'आज जाने की जिद न करो' को फैयाज हाशमी ने लिखा, लेकिन हबीब वली ही थे, जिन्होंने गाकर इसके मायनों को मालामाल कर दिया. बीते 3 सितंबर को हबीब वली मोहम्मद दुनिया से रुखसत हो गए.

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Habib wali muhammad
Habib wali muhammad

हबीब वली जब गाया करते थे तो उनकी जुबान की मिठास तीर-ए-नीमकश होकर सुनने वालों के दिलों में बची रह जाती थी. 'आज जाने की जिद न करो' को फैयाज हाशमी ने लिखा, लेकिन हबीब वली ही थे, जिन्होंने गाकर इसके मायनों को मालामाल कर दिया. बीते 3 सितंबर को हबीब वली मोहम्मद दुनिया से रुखसत हो गए.

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हबीब वली मोहम्मद की पैदाइश 1924 में रंगून में बसे एक मेमन खानदान में हुई थी. बाद में उनका परिवार मुंबई चला आया. छुटपन में हबीब को कव्वाली बहुत पसंद थी. उन्होंने क्लासिकल म्यूजिक की शुरुआती तालीम उस्ताद लताफत हुसैन से ली. मुंबई के इस्माल यूसुफ कॉलेज से ग्रेजुएशन के दौरान उनके सुर इतने सधे हुए थे कि लोग उन्हें तानसेन बुलाने लगे.

साल 1941 में मुंबई में नौजवानों का एक म्यूजिक मुकाबला हुआ. इसमें 1200 लोगों ने हिस्सेदारी की. हबीब ने मुकेश जैसे कई युवाओं को पीछे छोड़कर अव्वल जगह हासिल की. बाद में हबीब तो गजल गायकी करते हुए पाकिस्तान चले गए और इधर मुकेश ने फिल्मी दुनिया में एक अलग ही मकबूलियत हासिल की.

इस म्यूजिक मुकाबले की बात करें तो जिक्र लाजमी है आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का. हबीब ने जफर की लिखी गजल 'लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में' गाई थी. मगर उनका परिवार गाने बजाने के बजाय पढ़ाई को अहमियत देने का हिमायती था. नतीजतन हबीब ने कुछ वक्त के लिए अपने इस शौक से तौबा कर ली. जिस साल मुल्क आजाद हुआ. हबीब के हाथ न्यूयॉर्क की एक यूनिवर्सिटी से एमबीए की डिग्री आई.

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इसी दौरान उन्होंने गजल का एक रेकॉर्ड निकाला. इसमें एक तरफ तो बहादुर शाह जफर की लिखी गजलें थीं और दूसरी तरफ गालिब की लिखी. पब्लिक में इस रेकॉर्ड का शुरुआती असर मद्धिम था. मगर एक रोज मशहूर अदाकार मीना कुमारी ने ये गजलें सुनीं. उस वक्त वह रेडियो सीलोन से जुड़ी हुई थीं. तो इस रेडियो स्टेशन ने हबीब की गजलों को खूब प्रसारित किया. ऐसे में हबीब के रेकॉर्ड की बिक्री में तो इजाफा होना ही थी.

कारोबारी सिलसिले में उनका परिवार 1947 में भारत छोड़कर पाकिस्तान चला गया था. हबीब भी परिवार और कारोबार की खातिर 10 बरस बाद पाकिस्तान में ही जम गए. उनका परिवार पाकिस्तान के पुराने कारोबारी खानदानों में गिना जाता है. शालीमार सिल्क मिल की मिल्कियत उन्हीं के पास है. उनके भाई अशरफ तबानी ने सियासत में भी कई पायदान चढ़े. बेनजीर भुट्टो की आमद के वक्त यानी साल 1988 में वह सिंध के गवर्नर भी रहे.

हबीब परिवार के साथ बाद में अमेरिका के कैलिफोर्निया राज्य में सैटल हो गए. 3 सितंबर 2014 को लॉस एंजिल्स में उनका निधन हो गया. हबीब ने कभी भी गजल गायकी को बहुत आक्रामक और पेशेवर ढंग से नहीं अपनाया. मगर जितना भी गाया, क्या खूब गाया. और इसके लिए वह पाकिस्तान के प्रतिष्ठित निगार अवॉर्ड से भी नवाजे गए.

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सुनिए हबीब की जिंदगी उन्हीं की जुबानी
हबीब के सुर का सम्मोहन समझने के लिए ये रहीं कुछ गजलें और गीत. इसमें खास है आज जाने की जिद न करो. फैयाज हाशमी की इस गजल को ज्यादातर लोग फरीदा खानम की आवाज के जरिए ही सुनते हैं. मगर फरीदा के साथ साथ इसे अमरता बख्शने में हबीब का भी हाथ था. इन दोनों ने ही इसे एक फिल्म के लिए सबसे पहले गाया. राग था यमन कल्याण. सुनिए आज जाने की जिद न करो का पहला वर्जन.

लगता नहीं दिल मेरा उजड़े दयार में

गोरी करत श्रृंगार

ये न थी हमारी किस्मत


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