प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब शनिवार की रात लोगों को संबोधित करने के लिए टीवी पर आए तो लोग सांस रोके इंतज़ार कर रहे थे कि कहीं यह भाषण भी 8 नवंबर की शाम जैसा न हो. फिर एक नोटबंदी का किसी कठोर फैसले का खौफ लिए लोग 2016 की ढलती शाम में प्रधानमंत्री को सुन रहे थे.
प्रधानमंत्री बोले. लेकिन इसबार 8 नवंबर की पुनरावृत्ति नहीं थी. इसबार नोटबंदी के बाद की स्थिति की क्षतिपूर्ति थी, लोकप्रिय राजनीतिक घोषणाएं थीं और ईमानदारी का स्तुतिगान था. इस भाषण के बहाने प्रधानमंत्री बहुत कुछ सुधारते और सही करने की कोशिश करते ज़्यादा नज़र आए. यह भी जताने की कोशिश की गई कि जो उन्होंने किया, वो सही था और उसमें वो सफल रहे.
मोदी जब सत्ता में आए थे तो उन्होंने मनरेगा को मिट्टी खोदने वाली योजना कहा था. लेकिन नोटबंदी की मार ने मोदी को यूपीए-3 बना दिया है. वो सामाजिक कल्याण और सब्सिडी को बल देते नज़र आ रहे हैं. यूपीए के बाद जिस नीति पर मोदी आगे बढ़ रहे थे, यह भाषण उसका यूटर्न जैसा भी है.
आइए, जानते हैं प्रधानमंत्री के संबोधन के तीन प्रमुख पहलू—
पहले चोट, अब नज़र में वोट
नोटबंदी ने पहले लोगों की पीठ छील दी. शायद मोदी को भी इसका अंदाज़ा नहीं था कि जिस नोटबंदी को एक महान ऐतिहासिक क़दम आंक रहे हैं, वो लोगों के सामान्य जनजीवन को इस तरह से प्रभावित करेगा. इसका असर पार्टी के लिए आगामी चुनावों पर भी एक चुनौती की तरह दिखने लगा था.
शनिवार का भाषण इसी चोट की भरपाई करता नज़र आता है. प्रधानमंत्री का भाषण खासा राजनीतिक था. उन्होंने शोषित और ग़रीबों, ईमानदारों का हवाला देते हुए भाषण की शुरुआत की और फिर एक के बाद एक घोषणाएं करते नज़र आए. यह चोट पर दवा लगाने जैसा और लोगों के हाथ में राहत बांटने जैसा था. नोटबंदी से चोट खाए लोगों को खुश करने के लिए इस भाषण में बहुत कुछ था.
मोदी अपने भाषण में अमीरों पर संदेह करते और गरीबों, किसानों को राहत बांटते नज़र आए. दरअसल, वो लोगों के बीच अपने पिछले निर्णय की पीड़ा को मिटाने और उन्हें खुश करने के लिए कोशिश करते नज़र आए.
क्या यह बजट भाषण था?
अब से कुछ सप्ताह के फासले पर ही केंद्र सरकार को अपना बजट पेश करना है. इसके बावजूद मोदी अपने भाषण में शुरुआती संबोधन के कुछ मिनटों बाद जो ब्यौरा दे रहे थे, वो किसी बजट भाषण से कम नहीं था. ऐसा लग रहा था कि पीएम बजट पेश कर रहे हैं और यह देश के लिए संबोधन नहीं, संसद के पटल पर रखा जा रहा आम बजट है.
देश के तमाम तबकों के लिए जो घोषणाएं मोदी जी ने शनिवार की शाम कीं, वो घोषणाएं बजट में भी की जा सकती थीं. तो क्या मोदी बजट से पहले ही बजट जैसी घोषणाओं को अपने भाषण का हिस्सा बनाकर नोटबंदी के बाद की स्थितियों में राजनीतिक माइलेज लेने की कोशिश कर रहे हैं.
ऐसी कई बातें हैं जो मोदी सरकार के कामकाज के अतिकेंद्रित होने का संकेत देती हैं. शनिवार का भाषण उस कड़ी में एक और उदाहरण के तौर पर भी देखा जाएगा.
कालेधन पर खामोश मोदी
इस भाषण में मोदी ने जाली नोट और भ्रष्टाचार जैसे शब्द तो इस्तेमाल किए लेकिन कालेधन के सवाल पर बोलने से वो कतराते नज़र आए. ऐसा लगा जैसे इस शब्द से जानबूझकर बचने की कोशिश की जा रही है. सबसे ज़्यादा निराशाजनक यह रहा कि जिस नोटबंदी की पटकथा के दूसरे चरण के तौर पर इस संबोधन को देखा जा रहा था, उसपर भी मोदी खामोशी पहने रहे.
मोदी के संबोधन में तथ्यों का अभाव रहा. मसलन, कितना कालाधन वापस आया. कितना लाभ सरकार को मिला. नोटबंदी की उपलब्धियों के आंकड़े भाषण से नदारद रहे. कुछ किनारे छूकर मोदी नोटबंदी और कालेधन पर आगे बढ़ते रहे.
विडंबना यह भी है कि नोटबंदी की जो घोषणा मोदी जी ने की थी और जिसे लेकर अबतक एक के बाद एक नियम बदले जाते रहे हैं, उसपर मोदी कुछ नहीं बोले. लोगों को नहीं मालूम कि यहां से आगे उन्हें कहां और कैसे जाना है.
दर्द को कम करने के लिए इतना ज़रूर किया गया कि इस भाषण से एक दिन पहले एटीएम से पैसा निकालने की सीमा को 2500 से बढ़ाकर 4500 कर दिया गया. लेकिन इसके आगे क्या और लोग नोटबंदी के इस महान अभियान में अब कहां खड़े हैं, बैंकों की स्थिति कबतक ठीक हो जाएगी, 50 दिन के दर्द के बाद अब कितने दिन का दर्द और झेलना है, ऐसे कई सवाल इस भाषण में अनुत्तरित रहे.
नोटबंदी सही
भले ही नोटबंदी का रिपोर्टकार्ड मोदी के भाषण का हिस्सा न बन सका लेकिन नोटबंदी सही थी, ऐसा स्थापित करने में मोदी प्रयासरत नज़र आए और इसके लिए उन्होंने आमजन को ही अपनी ढाल बनाया. मोदी ने अपने भाषण में गरीब और अमीर के बीच के बंटवारे को खूब उछाला और फिर गरीबों को नोटबंदी से लड़ने का श्रेय देकर उसे सही ठहराया.
मोदी दरअसल कष्ट बनाम महानता की राजनीति कर रहे हैं और यह उनके दूसरे संबोधन से साफ जाहिर होता है. वो कठिनाई झेल रहे आमजन को महान बनाकर अपने फैसले की कड़वाहट को सहने का संबल लोगों को दे रहे हैं.
महानता का दर्शन
मोदी इस भाषण में भी जिस एक बात को लेकर तटस्थ दिखे, वो था एक महान परंपरा का वाहक बनकर आगे बढ़ने की व्याकुलता. मोदी ने अपने भाषण में लालबहादुर शास्त्री का नाम लिया, जयप्रकाश नारायण का ज़िक्र किया, वो अंबेडकर, लोहिया और कामराज का हवाला देते मिले. उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय का भी नाम लिया लेकिन अपने फैसलों की ज़मानत वो दीनदयाल से पहले के नामों से मांगते नज़र आए.
मोदी दरअसल कांग्रेस के सापेक्ष एक महान समाजवादी, दलितवादी और ग़ैर-गांधी परंपरा के नायकों को समेटते हुए आगे बढ़ना चाहते हैं. वो चाहते हैं कि उनके फैसलों और नेतृत्व को भारतीय राजनीति की उस परंपरा की तरह देखा जाए जो गांधी परिवार के चरित्र और परंपरा से अलग एक बड़े ईमानदार, साहसिक और जनहित वाली सोच पर आधारित है.
महान त्याग, शुद्धिकरण यज्ञ और देश के लिए कठिनाइयां झेलने वाले शब्द भी इसी महानताबोध से भरे हुए हैं जिसमें स्वार्थ नहीं, कल्याण की छवि स्थापित होती है.