बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 2017 की सुर्खियों में शामिल हो गए हैं. उन्होंने राज्य में राजद-जेडीयू-कांग्रेस महागठबंधन की सरकार को 26 जुलाई को गिराया और एक घंटे के अंदर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एनडीए गठबंधन की सरकार का हिस्सा बन गए. यानी एक घंटे में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा और नई सरकार का खाका तैयार कर फिर मुख्यमंत्री बन जाना.
नीतीश कुमार के लिए यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने गठबंधन तोड़ने का फैसला लिया. 2014 में भी उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा महज इसलिए दे दिया था कि उन्हें नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व मंजूर नहीं था और तत्कालीन एनडीए गठबंधन से बाहर निकल महागठबंधन बना लिया.
नीतीश कुमार का बतौर मुख्यमंत्री और बतौर जेडीयू नेता लिए गए फैसलों का आंकलन करते हुए यह समझा जा सकता है कि क्या वह बिहार के एक ताकतवर मुख्यमंत्री कहे जाएंगे या फिर वह एक कमजोर मुख्यमंत्री की कैटेगरी में ज्यादा फिट होंगे.
1. महागठबंधन का नेतृत्व करने में विफल
2014 में बीजेपी के हाथों करारी हार के बाद विपक्ष के नाम पर देश में कांग्रेस की पहला वाला राजद-जेडीयू-कांग्रेस महागठबंधन सबसे अहम कड़ी थी. हालांकि लोकसभा चुनाव के नतीजों ने इस महागठबंधन की हवा निकाल दी थी. फिर 2015 में इसने विधानसभा चुनावों में बीजेपी को राज्य में तीसरे दर्जे की पार्टी बना दिया. लिहाजा, राष्ट्रीय स्तर पर भी यह महागठबंधन विपक्ष की राजनीति के लिए बेहद अहम था. नीतीश कुमार को 2015 के चुनावों में मिली जीत से इस महागठबंधन का नेतृत्व मिला. लेकिन 3 साल में विपक्ष की राजनीति के गठबंधन का नेतृत्व करने से नीतीश ने न सिर्फ मना कर दिया बल्कि एक कदम आगे बढ़कर केन्द्र में सत्तारूढ़ गठबंधन का दामन थाम लिया.
2. बतौर मुख्यमंत्री भी रहे सरकार में कमजोर
2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनावों में महागठबंधन को सरकार बनाने का मौका मिला. दूसरे नंबर की पार्टी होने के बावजूद महागठबंधन ने नीतीश कुमार को बतौर विकास का चेहरा प्रोजेक्ट कर राज्य का मुख्यमंत्री बनाया. यह नीतीश कुमार के लिए दोहरे शतक जैसे हो सकता था बशर्ते वह अपने नेतृत्व क्षमता से इस महागठबंधन की सरकार को मजबूत रख पाते. लेकिन सरकार बनाने के लिए जैसे ही उन्हें राजनीति में एंट्री करने वाले लालू के दोनों बेटों को सरकार में न सिर्फ शामिल किया बल्कि एक को डिप्टी सीएम बनाकर राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर खुद को कमजोर कर लिया.
3. अवसर मिलते ही बदलने की फितरत
लालू प्रसाद यादव के सहारे राजनीति में आए नीतीश कुमार को पहला मौका मिला और वह लालू से अलग हो गए. लालू से पहली बार अलग होना नीतीश के लिए महत्वपूर्ण फैसला था. बिहार की राजनीति में सीधे लालू के विकल्प की तौर पर उभरे. राज्य को विकास का मूल मंत्र देने के नाम पर बीजेपी के साथ गठबंधन में रहे लेकिन जब गठबंधन का नेतृत्व मोदी के हाथ गया तो फिर साथ छोड़ विपक्ष के गठबंधन में शामिल हो गए. एक बार फिर जब लालू को साथ लेकर सरकार बनाने की मजबूरी सामने आई तो बिना किसी लाग-लपेट मोदी विरोध के परचम तले बिहार के मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन जैसे ही भ्रष्टाचार के काले बादल गठबंधन पर दिखाई दिया तो एक घंटे के अंदर मुख्यमंत्री पद का एक चोला उतार कर दूसरा चोला पहन लिया.
4. राज्य के विकास में विफल
लालू प्रसाद यादव के दो दशक लंबे शासन में अहम भूमिका निभाने के बावजूद नीतीश कुमार अपने लिए विकास पुरुष की छवि बनाने में कामयाब रहे. लालू खेमे से बाहर आकर और एनडीए में शामिल होकर वह बिहार के विकास का मैप देने की बात करते रहे. लेकिन बतौर मुख्यमंत्री बिहार को विकास के रास्ते में कितना पहुंचा पाए इसका कोई ठोस नतीजा राज्य के आर्थिक आंकड़ों में नहीं दिखाई दिया. लिहाजा, सवाल बिहार के विकास के लिए उनके रोडमैप पर भी है कि क्या बिहार की राजनीति में उन्होंने 'विकास' को महज एक जुमला की तरह इस्तेमाल किया है.
5. सुशासन में सेंध
आरजेडी के साथ 2015 में सरकार बनाने के बाद 2016 में एक मौका ऐसा भी आया जब आरजेडी के पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन को जमानत मिली. इस गठबंधन के कार्यकाल में जमानत मिलने के तुरंत बाद शहाबुद्दीन ने बयान दिया कि उनके लिए बिहार का मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव हैं क्योंकि नीतीश कुमार परिस्थितियों के मुख्यमंत्री हैं. हालांकि, शहाबुद्दीन का यह बयान उनके और नीतीश कुमार के रिश्ते तक ही सीमित रहा लेकिन इस एक बयान ने नीतीश कुमार के सुशासन के दावों में सेंधमारी कर यह साबित कर दिया कि राज्य में मुख्यमंत्री रहते हुए भी उनकी छवि कुछ तत्वों के लिए फॉर ग्रांटेड लिए जाने वाले नेता की ही है.