दुनिया को कल अलविदा कह जाने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण नेहरू कभी देश की सबसे ताकतवर राजनीतिक हस्तियों में थे. पर्दे के पीछे उन्होंने कई ऐसे फैसले लिए जिनका देश की राजनीति पर गहरा और दूरगामी असर पड़ा. पढ़िए, उनके बारे में पांच बातें, जो आपने पहले नहीं सुनी होंगी.
1. वीपी का इक्का थे अरुण
लोगों को लगता है कि अरुण नेहरू को इंदिरा गांधी राजनीति में लाईं. पर दरअसल यह वीपी सिंह का मास्टर स्ट्रोक था. 1980 में इंदिरा दो जगह से चुनाव लड़ीं. उत्तर प्रदेश के रायबरेली और आंध्र के मेडक से. दोनों सीटों पर जीत मिलने के बाद उन्होंने रायबरेली से इस्तीफा देना तय किया. यहां के लिए नए उम्मीदवार की खोज शुरू हुई.
उस वक्त उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के दो बड़े नेताओं हेमवती नंदन बहुगुणा और मुख्यमंत्री वीपी सिंह में वर्चस्व की लड़ाई चल रही थी. बहुगुणा ने इंदिरा गांधी की संसदीय सीट का काम-काज देख रहे जगपत दुबे का नाम आगे किया.
अरुण नेहरू इंदिरा के चचेरे भाई लगते थे. कोलकाता में किसी कंपनी में थे, लेकिन चुनाव के दौरान फंडिंग वगैरह के लिए रायबरेली आया करते थे. वीपी उनके व्यक्तित्व से वाकिफ थे. उन्हें लगता था कि यह आदमी काम करवाने और फैसले लेने में अच्छा है. उन्होंने इंदिरा गांधी को सलाह दी कि रायबरेली की सीट गांधी परिवार की प्रतिष्ठा बन चुकी है, इसलिए यह बेटन उसे सौंपना चाहिए जो इस विरासत का हिस्सेदार हो. इस तरह अरुण नेहरू का नाम फाइनल हो गया. बहुगुणा के प्रस्ताव के जवाब में यह वीपी का इक्का था.
2. पीएम हाउस पर नियंत्रण
रायबरेली से जीतकर अरुण नेहरू जब सांसद बने, तब इंदिरा बहुत सारी राजनीतिक चीजें व्यवस्थित कर रही थीं. संजय गांधी की हादसे में मौत हो चुकी थी और राजीव गांधी पॉलिटिकल अप्रेंटिस पर थे. उस वक्त यशपाल कपूर जैसे कई घाघ पॉलिटिकल मैनेजर हुआ करते थे, जो अटैची लेकर किसी आवास पर जाते और बड़ा राजनीतिक हेर-फेर हो जाता था.
अरुण नेहरू ने ऐसे घाघ पॉलिटिकल मैनेजरों को ठिकाने लगा दिया. पीएम ऑफिस तो नहीं, लेकिन पीएम हाउस की सत्ता उनके इशारों पर जरूर घूमने लगी. अरुण इंदिरा गांधी के भरोसेमंद बनते चले गए और उनके रहने तक बने रहे.
3. राजीव को पीएम किसने बनाया
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद यह अरुण नेहरू का ही प्रस्ताव था कि राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाया जाए. उन्होंने और वीपी सिंह ने तय किया था कि ऐसे हालात में जब कई कांग्रेस नेता सिंहासन की ओर देख रहे हैं, किसी भी तरह की अंतरिम व्यवस्था ठीक नहीं रहेगी. ऐसा करके उन्होंने एक ही झटके में राजीव गांधी का भी भरोसा हासिल कर लिया.
जब राजीव को यह प्रस्ताव दिया गया तो उन्होंने पास बैठे वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री प्रणब मुखर्जी का मन जानने के लिए उनसे पूछा कि ऐसे हालात में किसे सत्ता संभालनी चाहिए. प्रणब ने बिना कोई चतुराई दिखाते हुए एक नेता के बतौर साफ-साफ कहा कि ऐसी स्थिति में सबसे वरिष्ठ मंत्री ही काम संभालता है. सियासत के टिप्पणीकार कहते हैं कि यहीं से कांग्रेस में प्रणब मुखर्जी का पतन शुरू हुआ. 1984 की कैबिनेट में उन्हें जगह तक नहीं मिली और 1986 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ कर अपनी पार्टी बना ली.
4. कमरे से चिल्लाते हुए निकले अरुण
राजीव गांधी सरकार में अरुण नेहरू आंतरिक सुरक्षा मंत्री बने. राजीव दून स्कूल से पढ़े थे. जब वह पीएम बन गए तो दून स्कूल के कई साथी उनके इर्द-गिर्द जमा हो गए. लेकिन अरुण का कभी उन लोगों से टकराव नहीं हुआ. टकराव तब हुआ जब क्वात्रोकी परिवार गांधी परिवार के अजीजों में शामिल हो गया. अरुण नेहरू समेत वीपी सिंह और आरिफ मोहम्द खान भी इस बात से खफा हो गए. अरुण और राजीव में दूरिया बढ़ने लगीं.
दिल्ली में हवा थी कि राजीव गांधी अरुण का मंत्रालय बदलना चाहते हैं. कैबिनेट गठन की कवायद शुरू होने से पहले राजीव अपने मंत्रियों को बुला-बुलाकर बात कर रहे थे. राजीव की कैबिनेट में मंत्री थे, अब्दुल गफ्फूर. वह राजीव से मुलाकात के लिए उनके कमरे के बाहर इंतजार मं बैठे थे कि उन्होंने देखा कि अरुण नेहरू अंदर से तेज आवाज में कुछ बोलते हुए निकल रहे हैं. लग रहा था कि उनकी राजीव गांधी से गरमागरम बहस हुई है.
फिर अब्दुल पहुंचे तो राजीव ने उनसे कहा कि मैं आपका विभाग बदलने की सोच रहा हूं. अब्दुल बोले कि मैं तो ठीक काम कर रहा हूं. फिर क्यों? और बदलना ही क्यों, आप इस्तीफा ही ले लीजिए. राजीव गांधी ने कहा, ठीक है इस्तीफा दे दो और इसके लिए कोरा कागज तक मंगवा लिया.
5. पुनर्वास की कोशिश के पीछे कौन
इसके बाद कांग्रेस में कई बाद बदलाव हुए. वीपी सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी. 1989 में अरुण नेहरू जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़े और जीते. लेकिन अब उनका कद घट गया था. 1998-99 में अरुण ने बीजेपी से रायबरेली चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए. सियासी गलियारों में इसको लेकर बड़ी कानाफूसी हुई कि उनकी राजनीतिक पुनर्वास की कोशिशों के पीछे कौन आदमी था.
सियासी जानकारों की मानें तो वह अरुण जेटली थे. वह तेज तर्रार वकील थे और बोफोर्स मामले के अदालती पक्ष में उनकी अहम भूमिका था. राष्ट्रीय मोर्चा को फिक्स करने में भी उनका रोल था. इसी का इनाम उन्हें वीपी की सरकार में एडिशनल सॉलिसिटर जनरल बनाकर दिया गया.
(वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय से बातचीत पर आधारित)