दुनिया में कुछ रिश्ते-नाते खून से जुड़े होते हैं और कुछ रिश्ते हम खुद ही बनाते हैं. हमारी सोच, हमारी विचारधारा, हमारी पसंद के इतर भी बहुत कुछ होता है जिसे हम दोस्ती कहते हैं और वह बिनकही रिश्तेदारी दोस्ती कहलाती है.
हम उन सभी से भी कुछ ऐसे ही मिले थे. यूनिवर्सिटी के शुरुआती दिनों में कैंपस से दूर मिला हॉस्टल और हॉस्टल के खाने की बेहतरी के लिए सनातन काल से संघर्ष कर रहे छात्रों में वे सब भी शामिल थे. एक ही साइकिल पर कभी तीनों लोगों का बैठ जाना और कभी बाकी दोनों का ऑटो से आना-जाना और तीसरे का ऑटो से रेस लगाना. तो ऐसी थी हमारी त्रिमूर्ति. लोग दूर से ही सलाम ठोका करते और हम हाल-चाल के साथ शिष्टाचारवश चाय-मसाला पूछ लिया करते. हर रविवार हॉस्टल में होने वाले वॉलीबॉल मैच और उन्हें जीतने पर जलेबी-कचौड़ी की बाजी. हम अक्सर जीतने वाले के ही साइड रहते और हारने वाले को भी मिठास का अहसास करवाते.
सारे क्लासेज अलग-अलग करने के बावजूद बाकी का सारा समय साथ बिताना. चाहे किसी का पुतला फूंकना हो या गुपचुप किसी लड़की को देखना हो. मैं उन्हें मना करता और वे मुझे साथ खींचा करते. खाने से लेकर धम्माचौकड़ी और फिल्में, सबकुछ एक साथ ही होता था. आज हम सभी अलग-अलग जगहों पर जिंदगी और रोजगार को लेकर जद्दोजहद कर रहे हैं, लेकिन यह हम सभी के बीच एक बिनकहा करार है कि किसी एक की भी परेशानी पर बाकी दोनों मौजूद रहेंगे. मामला चाहे किसी को कूटने का हो या फिर किसी को जयमाला के स्टेज पर ऊंचा उठाने का. यह कहानी आप की भी हो सकती है, इसलिए दोस्तों का नाम नहीं लिख रहा हूं.
यह कहानी है बीएचयू में पढ़ने वाले एक पूर्व छात्र की, जिन्होंने अपना अनुभव हमारे साथ साझा किया है. अगर आपके पास आपकी जिंदगी से जुड़ी कोई भी खास यादें हों तो aajtak.education@gmail.com पर भेज सकते हैं, जिन्हें हम अपनी वेबसाइट www.aajtak.in/education पर साझा करेंगे.