बीजेपी और मोदी के दबदबे से मुकाबला करने के लिए आजकल महागठबंधन का जुमला सियासी गलियारों में खूब चर्चा में है. माया और अखिलेश जैसे धुर-विरोधी भी टकराहट छोड़ने के इशारे करने लगे हैं. लेकिन, गठबंधन का नेता कौन होगा. बंगाल में टीएमसी और लेफ्ट, तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक कैसे साथ आएंगे. ये वो सवाल हैं, जिनके जवाब उस कांग्रेस को तलाशने होंगे, जो विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और वही इस महागठबंधन की धुरी बनना चाहती है.
सूत्रों के मुताबिक, इस मुद्दे पर कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी अपने नजदीकियों से अनौपचारिक चर्चा भी शुरू कर चुके हैं. हालांकि, कांग्रेस की प्राथमिकता पहले खुद को मजबूत करने की है, जिससे गठजोड़ की सूरत में वो अपनी जमीन क्षेत्रीय दलों के सामने गंवाने को मजबूर ना हो. इसलिए कांग्रेस जल्दबाजी नहीं करना चाहती, वो चाहती है कि, जैसे माया और अखिलेश के सुर खुद के कमजोर होने पर नरम पड़े हैं, वैसे ही बाकी क्षेत्रीय दल भी महागठजोड़ के लिए मजबूर हों.
सूत्रों की मानें तो महागठजोड़ की सूरत में कांग्रेस के सामने तीन प्लान हैं.
प्लान ए- सबसे बड़ी पार्टी होने की सूरत में पीएम कैंडिडेट उसका हो. वो उम्मीदवार खुद राहुल गांधी हों या फिर राहुल ही किसी को उस वक्त मनोनीत करें. दरअसल, पार्टी में एक खेमा मानता है कि, हो सकता है कई क्षेत्रीय क्षत्रप राहुल के नाम पर तैयार ना हों और दूसरी बात ये भी है कि, अगर कहीं सरकार बनती है तो क्या राहुल खुद ऐसी मिली-जुली सरकार के पीएम बनना भी चाहेंगे?
प्लान बी- कांग्रेस महागठबंधन में चुनाव तो लड़े, लेकिन चुनाव के बाद सरकार बनने की सूरत में वो बाहर से समर्थन दे. ऐसे में नीतीश जैसे किसी नेता को पीएम की कुर्सी दे दी जाए, जिससे खिचड़ी सरकार के प्रदर्शन का असर उस पर ना पड़े.
प्लान सी- राहुल कांग्रेस अध्यक्ष के साथ ही महागठबंधन के मुखिया बन जाएं. अगर राहुल के नाम पर क्षेत्रीय दलों में सहमति ना बन सके तो सोनिया को महागठबंधन का मुखिया बना दिया जाए और नीतीश जैसे चेहरे को मोदी के सामने बतौर पीएम उम्मीदवार पेश किया जाए.
हालांकि, राहुल के करीबी नेताओं का कहना है कि, ये सब शुरुआती सियासी चर्चाएं हैं. अभी 2019 दूर है. हां, उसके पहले महागठबंधन की कोशिशें होंगी, लेकिन नेता जैसे बड़े सवाल तो आखिर में ही तय होंगे.
दरअसल, भले ही यूपी में माया और अखिलेश के बीच बर्फ पिघलने के संकेत दिख रहे हों. लेकिन, बंगाल में लेफ्ट और ममता को एक साथ महागठबंधन में लाना कांग्रेस के लिए फिलहाल तो दूर की कौड़ी है. कुछ ऐसा ही हाल तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक का है. साथ ही ओडिशा में नवीन पटनायक की बीजद के सामने सालों से मुख्य विपक्षी की भूमिका निभा रही कांग्रेस अब बीजेपी के राज्य में बढ़ते प्रभाव से मुश्किल में है.
वैसे सूत्र ये भी मानते हैं कि, सीबीआई के साथ ही तमाम सरकारी एजेंसियां भी हैं, जिनका एक्शन महागठबंधन के बनने और बिगड़ने में अहम भूमिका निभा सकता है.
ऐसे में महागठबंधन की चर्चा तो तेज है, सफलता के लिहाज से बिहार का उदाहरण भी दिया जा रहा है, तो यूपी में बसपा का महागठबंधन में ना होना बीजेपी की जीत की वजह बताया जा रहा है. लेकिन, जब तक ये महागठबंधन धरातल पर ना उतर जाए तब तक कयास और चर्चा जारी रहने वाली है. क्योंकि, महागठबंधन की सियासी राह काफी दुश्वार और पथरीली है.