पत्रकारिता और पत्रकारों के बारे में अक्सर चर्चा होती रहती है. आज के वक्त में यह चर्चा कुछ ज्यदा ही होती है. आज महात्मा गांधी का जन्मदिन है और आज हम आपको महात्मा गांधी के जीवन जुड़ी एक ऐसी घटना के बारे में बता रहे हैं जिसमें उन्होंने पत्रकारों खासकर रिपोर्टस को अपने साथ ले जाने से मना कर दिया था. इस घटना के बारे में खुद महात्मा ने अपनी आत्मकथा, 'सत्य के प्रयोग’ में लिखा है. गांधी बिहार में चंपारण की यात्रा पर थे. वो वहां नील किसानों की समस्या सुनने-समझने के लिए किसानों से मिलना चाह रहे थे.
गांधी के चंपारण में होने की वजह से वहां के स्थानीय अंग्रेज अधिकारी चिढ़े हुए थे. वो किसी भी तरह से गांधी को चंपारण से वापिस भेजना चाह रहे थे. गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब वो कमीशनर से मिले थे उन्होंने लगभग धमकाते हुए चंपारण छोड़ने के लिए कहा. बाद में कमीशनर की पहल पर ही गांधी पर मुकदमा किया गया जो कि बाद में कलेक्टर के आदेश पर वापिस ले लिया गया.
इन्हीं घटनाक्रमों के बीच गांधी एक इस बात की भी चर्चा करते हैं कि उन्हें अखबारों में रोज छपने वाली खबरों और चर्चाओं की कोई विशेष जरूरत नहीं थी. उन्हें डर था कि अखबारों में छपने वाली खबरों से उन्हें और गरीब किसानों का नुकसान होगा. गांधी तब स्थानीय अखबार के संपादकों को एक पत्र लिखकर कहा था कि आप अपने संवाददाता मेरे साथ न भेजें. मुझे अगर कुछ जरूरी लगेगा तो मैं आपको वहां से भेज दूंगा.
इस बारे में महात्मा गांधी लिखते हैं, 'मुझे अपनी जांच के लिए सरकारी तटस्थता की जरूरत तो थी लेकिन समाचार पत्रों की चर्चा और उनके संवाददाताओं की आवश्यकता न थी. यही नहीं उनकी आवश्यकता से अधिक टिकाओं से और जांच की लंबी-चौड़ी रिपोर्टों से हानि होने का भय था. इसलिए मैंने खास अखबारों के संपादकों से प्रार्थना की थी कि वे रिपोर्टरों को भेजने का खर्च न उठाएं; जितना छापने की जरूरत होगी उतना मैं स्वयं भेजता रहूंगा और उन्हें खबर देता रहूंगा.’
गांधी इसी क्रम में आगे लिखते हैं, 'मैं यह समझता था कि चंपारण के निलहे खूब चिढ़े हुए हैं. मैं यह भी समझता था कि अधिकारी भी मन में खुश न होंगे. अखबारों में सच्ची-झूठी खबरों के छापने से वे अधिक चिढ़ेंगे. उनकी इस चिढ़ का प्रभाव मुझपर तो कुछ नहीं पड़ेगा, पर गरीब, डरपोक रैयत पर पड़े बिना न रहेगा.’