समाजवादी आंदोलन की भट्ठी में तपे, विद्रोह और प्रतिरोध के प्रतीक रहे देश के पूर्व उद्योग और रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस का मंगलवार को 88 वर्ष की उम्र में निधन हो गया. लंबी बीमारी के चलते जॉर्ज पिछले कुछ सालों से सार्वजनिक जीवन से कट गए थे, लेकिन उनके राजनीतिक जीवन में ऐसे कई किस्से हैं जो उन्हें दूसरे नेताओं से अलग पंक्ति में खड़ा करते हैं. ऐसा ही एक वाकया उनके उद्योग मंत्री रहने के दौरान का है जिसमें उन्होंने विदेशी कंपनी कोका कोला और आईबीएम को भारत से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया था.
यह किस्सा तब का है जब विद्रोही तेवर वाले जॉर्ज फर्नांडिस, मोरारजी देसाई की सरकार में उद्योग मंत्री थे. 1977 में मुजफ्फरपुर सर्किट हाउस के एक कार्यक्रम उनके सामने की मेज पर एक पेय रखा था पूछने पर पता चला कि यह कोका कोला था. जॉर्ज ने इस कंपनी के बारे में जानकारियां जुटानी शुरू की. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार के दौरान विदेशी मुद्रा विनियम अधिनियम (फेरा) कानून बना था. जिसके तहत भारत में उद्योग लगाने वाली कोई भी विदेशी कंपनी देश में 40 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी नहीं रख सकती थी. लिहाजा, विदेशी कंपनियों को अपनी भारतीय सहयोगी कंपनियों में बहुलांश हिस्सेदारी को बेचना होता था.
फर्नांडिस चाहते थे कि कोका कोला न सिर्फ अपनी हिस्सेदारी का स्थानांतरण करे, बल्कि इसका फॉर्मूला भी शेयरधारकों को दे. कोका कोला हिस्सेदारी की स्थानांतरण पर तो मान गई, लेकिन कारोबार की गोपनीयता का हवाला देते हुए फॉर्मूला देने से इनकार कर दिया. लिहाजा सरकार ने कोका कोला को भारत में पेय पदार्थ आयात करने का लाइसेंस देने से मना कर दिया. जिसके चलते कंपनी को भारत छोड़कर जाना पड़ा. जॉर्ज ने इसके बाद देसी ड्रिंक-77 लॉन्च किया.
हालांकि, कांग्रेस की पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में उदारीकरण का दौर चला और कोका कोला एक फिर भारतीय बाजार का हिस्सा बन गया. जॉर्ज फर्नांडिस ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण की भी जबरदस्त मुखालफत की. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में सहयोगी रहने के बावजूद उन्होंने घाटे में चल रही हिंदुस्तान पेट्रोलियम और भारत पेट्रोलियम के निजीकरण का विरोध किया. उन्होने यहां तक लिखा कि यह नीति अमीर को और अमीर बनाने और एकाधिकार स्थापित करने के लिए है.
चूंकि, जॉर्ज फर्नांडिस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के संयोजक भी थे. ऐसे में सरकार की बैठकों में उनके और तत्कालीन विनिवेश मंत्री अरुण शौरी के बीच तीखी बहस भी होती थी. दरअसल, फर्नांडिस चाहते थे कि एचपीसीएल और बीपीसीएल के लिए विदेशी कंपनियों के अलावा सरकारी कंपनियों को भी बोली लगाने की अनुमति दी जाए लेकिन शौरी ने इसका विरोध किया.
इसके बाद यह मामला कोर्ट पहुंचा और सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले मे कहा कि सरकार को एचपीसीएल और बीपीसीएल की बिक्री के लिए संसद अनुमति लेनी होगी. चूंकि 2004 के लोकसभा चुनाव सिर पर थे. लिहाजा, सरकार ने इस मामले को संसद में ले जाना मुनासिब नहीं समझा. इसके बाद केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ, 10 साल तक कांग्रेस की सरकार चली, लेकिन इस पर कोई फैसला नहीं हुआ. हालांकि वर्तमान मोदी सरकार ने हिंदुस्तान पेट्रोलियम में सरकार की 51.11 फीसदी हिस्सेदारी 2018 में ओएनजीसी को बेच दिया.