सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि सामूहिक बलात्कार के मामले में लड़की की सहमति संभव नहीं हो सकती है. कोर्ट ने कहा कि आरोपी पीड़िता की रजामंदी को आधार बनाकर अपना बचाव नहीं कर सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सामूहिक बलात्कार के मामले में लड़की सहमति देने वाला पक्ष नहीं हो सकता और यह मान लिया जाना चाहिए कि शिकायतकर्ता ने सहमति नहीं दी थी.
न्यायमूर्ति बीएस चौहान व न्यायमूर्ति एसए बोबडे की पीठ ने आरोपियों की इस दलील को खारिज कर दिया कि पीड़िता की तरफ से सहमति थी. पीठ ने आरोपियों को दस साल की जेल की सजा सुनाने के निचली अदालत के फैसले को सही ठहराया.
पीड़िता के अनुसार यह घटना जून 1999 में झारखंड में उस समय हुई, जब दो लड़के उसे जबरदस्ती एक स्कूल में ले गये और उससे बलात्कार किया. बाद में कुछ अन्य भी शामिल हो गये और उस पर यौन हमला किया.
पीठ ने कहा, ‘अदालत ने मामले के तथ्यों पर गंभीरता से विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुंची कि भारतीय साक्ष्य कानून 1872 की धारा 114 ए के प्रावधान के मद्देनजर इस बात की धारणा है कि सामूहिक बलात्कार मामले में सहमति का अभाव होता है.’
उसने कहा, ‘यह मान लिया जाता है कि शिकायतकर्ता ने सहमति नहीं दी. यह धारणा इस तर्क पर आधारित है कि एक के बाद एक कई लोगों को कोई भी सहमति नहीं दे सकता. लिहाजा, सामूहिक बलात्कार में सहमति संभव नहीं है.’
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बलात्कार को महज यौन अपराध के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह महिला की पवित्रता का घोर हनन है. कोर्ट ने कहा कि बलात्कार के मामले में मनोवैज्ञानिक आघात के अलावा पीड़िता को सामाजिक दंश भी झेलना पड़ता है.
पीठ ने कहा कि अधिकतर बलात्कार अचानक नहीं होते, बल्कि आम तौर पर योजनाबद्ध होते हैं, जैसा कि इस मामले में हुआ. बलात्कार पीड़िता पर सामाजिक दंश का भारी प्रभाव पड़ता है. यह उसकी प्राइवेसी के अधिकार का घोर हनन है.