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नहीं सुलझा विवाद तो गोरखपुर में बंद हो सकती है गीता प्रेस

पिछले महीने भर से चल रहा गीता प्रेस विवाद अब एक नाजुक मोड़ पर आकर ठहर गया है. वेतन बढ़ाने को लेकर चल रही कर्मचारियों की हड़ताल और दस राउंड बातचीत के विफल हो जाने के बाद प्रेस का काम ठप्प पड़ा हुआ है. मगर अब गीता प्रेस के ट्रस्टियों ने गोरखपुर में गीता प्रेस बंद कर इसे किसी दूसरी जगह ले जाने का सुझाव देकर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है.

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गोरखपुर के गीता प्रेस में विवाद जारी
गोरखपुर के गीता प्रेस में विवाद जारी

पिछले महीने भर से चल रहा गीता प्रेस विवाद अब एक नाजुक मोड़ पर आकर ठहर गया है. वेतन बढ़ाने को लेकर चल रही कर्मचारियों की हड़ताल और दस राउंड बातचीत के विफल हो जाने के बाद प्रेस का काम ठप्प पड़ा हुआ है. मगर अब गीता प्रेस के ट्रस्टियों ने गोरखपुर में गीता प्रेस बंद कर इसे किसी दूसरी जगह ले जाने का सुझाव देकर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है. फिलहाल सबकी नजरें शुक्रवार को होने वाली ग्यारहवें दौर की बातचीत पर टिकी हैं.

बातचीत का कोई नतीजा नहीं
दुनिया भर में हिंदू धर्म से जुड़ी धार्मिक किताबें पहुंचाने वाली मश्हूर गीता प्रेस की पहचान और उसका पुराना मुकाम अब शायद हमेशा के लिये बदल जाए. कम से कम आज के हालात और इसे चलाने वाले ट्रस्टियों की बात पर यकीन किया जाए तो ऐसा ही लगता है. दरअसल पिछले लगभग महीने भर से चली आ रही हड़ताल के चलते प्रेस बंद है और अभी तक कर्मचारियों और ट्रस्टियों के बीच बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला है.

वेतन को लेकर शुरू हुआ था विवाद
हड़ताल की शुरुआत तो वेतन बढ़ाने की मांग से हुई थी मगर इसी को लेकर जब झगड़ा बढ़ा और वर्करों ने कथित तौर पर एक सुपरवाइजर की पिटाई कर दी तो मामले ने और तूल पकड़ लिया. ट्रस्ट ने इसे अनुशासनहीनता मानते हुए 17 कर्मचारियों को निलंबित कर दिया जिनमें 12 स्थाई और 5 अस्थाई कर्मचारी शामिल थे. बाद में बातचीत होने पर गीता प्रेस ट्रस्ट स्थाई कर्मचारियों को तो वापस लेने पर राजी हो गई. मगर अस्थाई कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया.

कर्मचारी अपनी मांग पर अड़े

बस बात यहीं अटक गई और इसके बाद से दस दौर की बातचीत के बावजूद न तो ट्रस्ट उन्हें वापस लेने को तैयार हुई और न ही कर्मचारियों ने उन पांच अस्थाई लोगों की वापसी की शर्त और जिद छोड़ी. तंग आकर ट्रस्ट के लोग अब पूरी की पूरी प्रेस को किसी और जगह शिफ्ट करने पर विचार कर रहे हैं. ट्रस्टी ईश्वर प्रसाद पटवारी ने बताया कि अगर ये समस्या लम्बे समय तक चली तो पहले तो बाजार से पुस्तकें छपवाई जाएंगी. उस पर भी और समय खिंचा तो विचार करना पड़ेगा और कहीं शिफ्ट करने के लिये.

शिफ्ट करने का विकल्प
तर्क मजबूरी का है मगर गीता प्रेस को कहीं और शिफ्ट करने के सुझाव भर से हंगामा मच गया है. लोगों का कहना है कि गीता प्रेस गोरखपुर की पहचान है और इसे शहर से अलग करने पर इस संस्था की पहचान हमेशा के लिये खत्म हो जाएगी. गीता प्रेस के संस्थापक घनश्याम दास जी जालान का परिवार इसे लेकर सकते में है. तीन पीढ़ियों से गीता प्रेस ट्रस्ट से जुड़ा रहा ये परिवार अब भले ही ट्रस्ट से बाहर हो लेकिन उनका कहना है कि प्रेस को गोरखपुर में बनाए रखने और कर्मचारियों की वेतन से जुड़ी समस्याओं का समाधान करने के लिये बहुत कुछ किया जा सकता है. बस शर्त ये है कि ट्रस्टी और कर्मचारी बीच का रास्ता निकालने के लिये तैयार हों.

वेतन विसंगति दूर हो
कर्मचारियों का तर्क है कि स्थाई कर्मचारियों को सरकारी मानकों के हिसाब से बस न्यूनतम वेतन और अस्थाई कर्मचारियों को ठेकेदार के रहमोकरम पर क्यों छोड़ दिया जाता है? और आखिर दुनिया भर में मश्हूर इस ट्रस्ट में फायदे-नुकसान के आंकड़े सार्वजनिक क्यों नहीं किये जाते? गीता प्रेस की नींव रखने वाले घनश्याम दास जालान का परिवार तो इस मामले में बाकायदा ट्रस्टियों पर उंगली उठाता है.

ग्यारहवें दौर की बातचीत पर निगाह
अब मामला एक बार फिर ग्यारहवें दौर की बातचीत पर आकर टिका है. जहां कर्मचारियों और ट्रस्टियों के बीच मध्यस्तता श्रम विभाग और प्रशासन के अफसर करा रहे हैं. ट्रस्ट से जुड़े लोगों का सब्र अब धीरे-धीरे जवाब देता जा रहा है लिहाजा बहुत मुमकिन है कि अगर बात शुक्रवार को हुई बैठक में भी नहीं बनी तो ट्रस्ट गीता प्रेस को कहीं और ले जाने के अपने फैसले का औपचारिक ऐलान कर दे. बहरहाल नतीजा जो भी हो गीता और दूसरी धार्मिक किताबों का संदेश दुनिया भर में पहुंचाने वाली गीता प्रेस को लेकर मचे इस घमासान से इससे जुड़े पाठक बेहद आहत हैं. दबी जुबान में कुछ लोग तो ये भी कहते हैं कि जो संदेश यहां से दुनिया भर में जाता है अगर गीता प्रेस चलाने वाले उसे गंभीरता से लेते तो शायद ये नौबत कभी नहीं आती.

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