scorecardresearch
 

सपा-बसपा की जीत नहीं भाजपा की हार, लेकिन पिक्चर अभी बाकी है

उपचुनाव के नतीजों के कई मायने हैं. सबसे पहला मायने तो यह है कि भाजपा हारी है. योगी हारे हैं. मोदी हारे हैं. वरना एक दो-तिहाई बहुमत वाली महज एक साल पुरानी सरकार और केंद्र में भी उसी पार्टी की सरकार के प्रत्याशी अपनी जीती हुई सीटों पर चुनाव क्योंकर हार जाते.

Advertisement
X
उपचुनावों में बुरी तरह हार पर घिरी भाजपा
उपचुनावों में बुरी तरह हार पर घिरी भाजपा

Advertisement

गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव ने चौंकानेवाले नतीजे दिए हैं. इन नतीजों के कई मायने निकाले जा रहे हैं और उतने ही स्पष्टीकरण भी दिए जा रहे हैं. यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ कह रहे हैं कि अति आत्मविश्वास के कारण भारतीय जनता पार्टी हार गई. पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव का कहना है कि यह विकल्प की जीत है, सामाजिक न्याय की जीत है. सपा और सहयोगी दलों की जीत है. लेकिन जीत की ये समीक्षा सुविधानुसार ही पेश की जा रही है. कहानी इससे कहीं आगे जाती दिख रही है.

उपचुनाव के नतीजों के कई मायने हैं. सबसे पहला मायने तो यह है कि भाजपा हारी है. योगी हारे हैं. मोदी हारे हैं. वरना एक दो-तिहाई बहुमत वाली महज एक साल पुरानी सरकार और केंद्र में भी उसी पार्टी की सरकार के प्रत्याशी अपनी जीती हुई सीटों पर चुनाव क्यों हार जाते. उससे भी बड़ा कारण यह है कि गोरखपुर योगी की सीट है जो सूबे के मुख्यमंत्री हैं और फूलपुर केशव प्रसाद मौर्य की सीट है जो राज्य के उपमुख्यमंत्री हैं. इनकी सीटों पर हार भाजपा के लिए किसी और सीट पर होने वाली हार से कहीं बड़ी है.

Advertisement

समाजवादी पार्टी औऱ बहुजन समाज पार्टी भले ही इस बात से खासी राहत महसूस कर रहे हों कि यह उनके लिए सूनेपन में ठंडी बयार बनकर आया हुआ जनादेश है लेकिन सच तो यह है कि लोगों ने सपा-बसपा को जिताने के लिए नहीं, मोदी और योगी को सबक सिखाने के लिए वोट किया है. सबक सिखाने के लिए एक विकल्प लोगों को चाहिए था जिसमें भाजपा की लहर से टक्कर लेने की क्षमता का मतगणित हो. सपा को बसपा के समर्थन ने वह गुंजाइश पैदा कर दी और लोगों ने भाजपा के दांत खट्टे कर दिए.

इसे भी पढ़ें... INSIDE STORY: जानें- क्या हुआ अखिलेश और मायावती की मुलाकात में

भाजपा बार-बार यह दोहराएगी कि इसका योगी और मोदी की परफॉर्मेंस से कोई वास्ता नहीं है. लेकिन दरअसल यह लड़ाई परफॉर्मेंस और अंतरकलह की ही है. सपनों के संसार को मोदी ने जिस ऊंचाई पर ले जाकर स्थापित कर दिया है, उसके बदले में किए गए कामों की लिस्ट बहुत बौनी है. किसानों, नौजवानों की तकलीफ औऱ बढ़ी है. नोटबंदी और जीएसटी ने काम देने वाले और काम करने वाले, दोनों ही वर्गों की कमर तोड़ दी है. योगी हत्याएं कराने के अलावा और कुछ नहीं कर पा रहे हैं. न बिजली का सवाल सुलझा है, न बच्चों की मौतें रुकी हैं. गड्ढा मुक्त सड़क और सबका विकास के नारे झूठे साबित हुए हैं. मोदी सपनों और योगी भय के दम पर सत्ता चला रहे हैं. लेकिन दोनों ही चीज़ें बहुत दिन तक सत्ता का सिंहासन संभाल नहीं पाती हैं. जनादेश इसका प्रमाण है.

Advertisement

इस जनादेश में पार्टी की कलह की कहानी प्रमाण में बदल गई है. हार के बाद प्रेस से बात करते हुए केशव मौर्य ने कह भी दिया कि फूलपुर तो भाजपा एकबार ही जीती थी, गोरखपुर तो दशकों से भाजपा की थी, फिर भी हम हार गए हैं. वो दरअसल उस टीस की आवाज़ थी जो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से लेकर अबतक उनके अंदर भरी हुई है. उनके संयोजकत्व में भाजपा ने 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ा. उनके नाम की चर्चा मुख्यमंत्री पद के लिए बारहां होती रही. लेकिन छीका योगी लूट ले गए. तब से लेकर आज तक योगी और मौर्य अपनी अपनी गद्दी से अपने अपने तरीके से सूबे की सरकार को हांक रहे हैं.

ऐसी बातें लोगों के बीच चर्चा में रहीं कि योगी चाहते हैं केशव फूलपुर हार जाएं. केशव मौर्य की सीट पर पार्टी की हार योगी को केशव के सापेक्ष और बड़ा कर देती. उधर ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय का संघर्ष गोरखपुर में अपने चरम पर पहुंचता जा रहा था. इसे संतुलित करने के लिए भाजपा ने महेंद्र पांडे को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया और कई महीनों की रस्साकसी के बाद योगी की सलाह के बिना एक पंडित को गोरखपुर सीट से प्रत्याशी बनाया. इससे योगी विचलित थे. नतीजा यह रहा कि न तो फूलपुर में भाजपा कार्यकर्ता पूरे आत्मविश्वास से भरे दिखे और न ही गोरखपुर में योगी की हिंदू युवा वाहिनी प्रचार में सक्रियता से कूदी. भले ही ये बातें ही हों, लेकिन माहौल बनाने बिगाड़ने में ऐसी बातों की अहमियत होती है. योगी और भाजपा इन्हें रोक न सके.

Advertisement

इसे भी पढ़ें... दफ्न हो गई 23 साल पुरानी दुश्मनी, नई दोस्ती की गवाह है ये तस्वीर

जिस गोरखपुर में भाजपा हारी है वो योगी की सीट है और योगी लगभग हर सप्ताह गोरखपुर पहुंचे रहते हैं. तो क्या सूबे का मुख्यमंत्री और गोरखपुर का महंत ऐतिहासिक जीत के बाद सरकते जनादेश को देख नहीं सका. क्या योगी ने यह नहीं सोचा होगा कि उनकी मर्ज़ी के विपरीत एक पंडित को टिकट देकर भाजपा उनके क्षत्रियवाद और वर्चस्व को कमज़ोर करना चाहती है. गोरखपुर में यदि भाजपा प्रत्याशी जीतता तो यह वहां अगड़ों की लड़ाई में एक संतुलन लाने का काम करता. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और इसीलिए गोरखपुर में भाजपा की हार योगी की हार से भी बड़ी है.

हार इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि इसमें लोगों के असंतोष से ज़्यादा पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों का असंतोष निहित है. कार्यकर्ता लगातार उपेक्षा की शिकायत करते आ रहे हैं. समर्थक योगी की शासन शैली से पूरी तरह नाखुश हैं. ऐसे में ज़मीन पर काम करने के लिए जो टीम भाजपा को चाहिए थी, वो कमज़ोर पड़ गई. भाजपा अगर इस चुनौती को दरकिनार करती है तो इसका असर अगले साल के चुनावों पर भी देखने को मिल सकता है.

मोदी के लिए यह हार अच्छी और बुरी खबर, दोनों ही रूपों में देखी जाएगी. अच्छी इसलिए कि उनके उत्तराधिकारी बनने की महात्वाकांक्षा रखने वाला योगी अपने ही गढ़ में घुटनों के बल बैठ गया है. इस तरह योगी के बढ़ते कद को मोदी ने फिर से छोटा कर दिया है. योगी का संकट भी यही है कि गोरखपुर से निकलकर न तो गोरखपुर पूरी तरह से उनके नियंत्रण में है और न ही लखनऊ की गद्दी वो भलीभांति संभाल पा रहे हैं. हिंदू युवा वाहिनी एक साल के भीतर ही कमज़ोर पड़ने लगी है. गोरखपुर में उपचुनाव की हार उनकी इस कमज़ोर स्थिति का प्रमाण बन गई है. मोदी के लिए यह अच्छी खबर है.

Advertisement

ये भी पढ़ें... गोरखपुर उपचुनाव: ब्राह्मण बनाम ठाकुर की राजनीति में हारी बीजेपी!

लेकिन मोदी के लिए यह बुरी खबर इसलिए है कि त्रिपुरा की जीत का गुलाल फीका पड़ने से पहले ही इन उपचुनावों की हार ने भाजपा को ज़मीन पर पटक दिया है. गुजरात की फीकी जीत के बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और अब उत्तर प्रदेश, बिहार के उपचुनावों में भाजपा की हार से मोदी के जादू का तिलिस्म कमज़ोर पड़ता नज़र आ रहा है. कम से कम आम मतदाता तो इसे इसी रूप में देखेगा. कर्नाटक में भी उपचुनाव के इस संदेश को इसी तरह से मतदाता पढ़ेगा. और ऐसा होना मोदी के लिए कतई अच्छा संकेत नहीं है. अगर यह सिलसिला ऐसे ही बढ़ा तो 2019 में अपनी हवा को बनाए रख पाना मोदी के लिए खासा मुश्किल होगा.

दरअसल, इन परिणामों के बाद मोदी यह ज़रूर सोचेंगे कि जनता पर जादू के लिए उन्हें अब क्या नए रास्ते अख्तियार करने की ज़रूरत है. क्योंकि वो भी ये देख पा रहे होंगे कि जादू के पुराने खेल अब जनता को लुभाने वाले नहीं हैं. जनता जादू के सापेक्ष चार साल के उनके प्रदर्शन को रखकर मुल्यांकन करेगी और देखेगी कि क्या वाकई बड़ी बातों वाला नेता बड़े काम कर पा रहा है. उपचुनावों के नतीजे इसी मुल्यांकन की भाप में भरे नज़र आते हैं.

Advertisement

ऐसा भी नहीं है कि ये नतीजे सपा-बसपा के बीच के समझौते की जीत है. हालांकि 23 साल बाद दोनों दलों का साथ आना एक ऐतिहासिक सुधार है. लेकिन उपचुनाव में जीत एक शुरुआती संकेत भर है. और यह संकेत इन दोनों दलों के साथ की स्वीकारोक्ति कम, भाजपा से नाराज़गी ज़्यादा है. हां, समझौते ने लोगों को विकल्प दिया है. लेकिन इस विकल्प को आगे ले जाने के लिए अभी दोनों दलों को खासी मेहनत करनी है. लोगों के बीच भी और पार्टियों के भीतर भी.

इसे भी पढ़ें.. 2 राज्य, 5 चुनाव और केवल भभुआ ने बचाई भगवा की लाज

उपचुनाव के नतीजों के बाद अब भाजपा और संघ को सोचना होगा कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य को एक जाति के चश्मे से देखने वाला नेतृत्व कबतक सत्ता और लोकप्रियता को साधे रख पाएगा. अखिलेश के समय लोगों में भ्रम था कि सरकार कौन चला रहा है- अखिलेश, शिवपाल, मुलायम या आज़म खां. वही भ्रम की स्थिति वर्तमान भाजपा सरकार ने भी बनी हुई है. नौकरशाही से लेकर लोगों तक यह भ्रम पसरा है. योगी इसे तोड़ने के लिए भय का सहारा लेते हैं लेकिन ऐसा करते हुए वो बहुत सीमित और संकीर्ण नज़र आते हैं. भाजपा को इसका समाधान खोजना होगा.

Advertisement

साथ ही सपा और बसपा को भी सोचना है कि जो उम्मीद लोगों ने जगाई है उसके लिए वो बलिदानों के लिए तैयार होते हैं या फिर अपने-अपने अहम और वर्चस्व को बचाने की कवायदों में एक बार फिर से एक फेल फार्मूला बनकर रह जाते हैं. और कांग्रेस को सोचना होगा कि दिल्ली में विपक्ष के डिनर की टेबलों से आगे बढ़कर कब राजनीतिक समझदारी का दायरा वो अन्य विपक्षी दलों के साथ ज़मीन तक ले जा पाएंगे. वो भी खुद को बचाए रखते हुए.

Advertisement
Advertisement