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गुजरात चुनाव: मुद्दा औद्योगिक विकास का

केशूभाई और किसानों की समस्या का काट क्या इलाके का औद्योगिक विकास हो सकता है? या फिर चुनावी मुद्दों में लिपटी-सिमटी नौकरियां और रोज़गार कोई और आईना दिखाएंगी?

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केशूभाई और किसानों की समस्या का काट क्या इलाके का औद्योगिक विकास हो सकता है? या फिर चुनावी मुद्दों में लिपटी-सिमटी नौकरियां और रोज़गार कोई और आईना दिखाएंगी?

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केशूभाई और किसानों की समस्या का काट क्या इलाके का औद्योगिक विकास हो सकता है? या फिर चुनावी मुद्दों में लिपटी-सिमटी नौकरियां और रोज़गार कोई और आईना दिखाएंगी?

सड़कों से लेकर उद्योग तक गुजरात का विकास नज़र तो आता है पर विरोधी इसे आंखों का धोखा कहते हैं.

मोदी सरकार को अपने ढांचे पर भरोसा है. वो विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे हैं, और विरोधी इसे छलावा साबित करने की जुगत में लगे हैं.

दुनिया के सबसे तेज़ी से विकास करने वाले शहरों में राजकोट ने अपना नाम दर्ज कराया है. इसमें कोई शक नहीं कि राजकोट ने विकास देखा है पर साथ ही देखे हैं कुछ अधूरे वादे.

हकीकत और फसाने का फासला कभी कभी बयानों में उलझ जाता है. कहने को विकास आंकड़ों के आईने में दिखता है-पर चुनावी बादलों में तस्वीर कभी-कभी साफ़ नज़र नहीं आती.

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गुजरात का तीसरा सबसे बड़ा शहर राजकोट भारी और लघु उद्योग से सजा है. वर्ल्ड बैंक से मिली मदद ने शहर की सूरत और बदली है. पारंपरिक तौर पर सोना और मौजूदा दौर में ऑटो पार्ट्स और रियल एस्टेट का बढ़ता दायरा शहर का रसूख और बढ़ा रहा है.

जामनगर भी पीछे नहीं है. कभी पीतल नगरी कहलाने वाला शहर अब तेल नगरी के नाम से मशहूर है. इसके बावजूद, शहर में छोटे बड़े पीतल के कुल 15000 कारखाने हैं.

कहने को ऑयल रिफाइनरी आने के बाद इस शहर की पहचान बदली. पर अभी भी इस शहर में रहने वाले ज्यादातर लोगों के लिए रोजगार का जरिया यही उद्योग है. हाल के दिनों में कई फैक्ट्रियों को बंद होने पर मजबूर होना पड़ा. लेकिन लोग इसके लिए राज्य सरकार नहीं, बल्कि केंद्र की नीतियों और आर्थिक मंदी को ज़िम्मेदार मान रहे हैं.

पिछले 6-7 महीनों में तकरीबन 200 छोटी कंपनियों को ताला लग गया. विपक्षी दल कहते हैं ये सरकार की नीतियों का खामियाजा है, पर उद्योग से जुड़े लोग ऐसा नहीं कहते.

हालांकि मोदी विरोधी कहते हैं कि सौराष्ट्र इलाके में उद्योग की परेशानियां इस बारसरकार की पेशानी पर बल डालेंगी.

सौराष्ट्र के सफर में ताज्जुब की बात ये रही कि समस्या में उलझे लोगों ने भी राज्य सरकार की खुली मुखालफत नहीं की. जाने ये किसी खौफ की वजह से था या संतोष के कारण. पर चलिए गीर के जंगलों में चलते हैं - जहां डर का रूप इंसानी नहीं.

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कांग्रेस को अगर मोदी की हार का भरोसा है तो किसानों और केशूभाई के साथ-साथ वो मालधारियों के असंतोष पर भी दांव लगा रहे हैं. गीर के बीयाबान में जंगल के राजा के साथ मालधारियों के भी कई गांव बसे हैं.

गीर के जंगलों में बीचों-बीच मालधारियों के 34 गांव यानी ट्राइबल पॉकेट्स मौजूद हैं. चुनावों के लिहाज़ से इनकी अहमियत ऐसी है कि मतदान के वक्त पोलिंग बूथ को इनके पास पहुंचाया जाता है.

जो मालधारी शहर की ओर निकल गए वो तो वोट की अलग राजनीति में उलझ गए. पर बाकी, जातिगत आधार पर एकमत हैं. हां इतना जरूर है कि हमेशा से जंगलों में बसने के बावजूद, उनकी राय सटीक भी है और तटस्थ भी.

खैर मुद्दे और मसले आम आदमी की दरकार हैं. राजनेता तो दावों और वादों की दुनिया बसाते हैं. और चुनावी फिजा में कभी-कभी ये दावे दलदली बयानों की शक्ल में नज़र आते हैं.

गुजरात कांग्रेस अध्यक्ष मोडवाडिया ने हाल ही में मोदी को बंदर कह डाला तो सबने भर्त्सना की. बवाल भी खूब मचा. मोदी के प्रशंसक तो उन्हें शेर मानते हैं गुजरात का शेर.
इतिहास गवाह रहा है कि सौराष्ट्र बहुत ज्यादा चौंकाता नहीं है. निष्कर्ष से पूर्व संकेत ज़रूर देता है. मुश्किल सिर्फ इतनी है कि कई दफा संकेतों की सुगबुगाहट में असलियत की आहट खामोश हो जाती है.

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