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सलमान ही नहीं, चचा ग़ालिब भी पैदा हुए थे आज, हुई मुद्दत पर अब भी याद आते हैं

'वो पूछता है कि ग़ालिब कौन था/कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या.' दुनिया के सबसे नामचीन शायर का तआरुफ़ कराना पड़े तो कराने वाले के लिए बड़ी मुश्किल हो जाती है.

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मिर्ज़ा ग़ालिब
मिर्ज़ा ग़ालिब

'वो पूछता है कि ग़ालिब कौन था/कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या.' दुनिया के सबसे नामचीन शायर का तआरुफ़ कराना पड़े तो कराने वाले के लिए बड़ी मुश्किल हो जाती है.

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इस ज़माने में आप सलमान ख़ान की सालगिरह शौक से मनाइए. पर अपनी क़द्रो-तारीफ और कीमती वक़्त का एक हिस्सा उस मस्तमौला शायर के नाम भी रिज़र्व रखिए, जो बिलाशक इस दुनिया का सबसे अज़ीम शायर था. वह जो खड़े-खड़े ग़ज़लें बनाता था और ऐसे पढ़ता था कि महफिलों में भूचाल आ जाते थे. जिसने शायद इस दुनिया के सबसे मुक़म्मल और याद रह जाने वाले शेर कहे. जिनमें एक था, 'ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिए/इक आग का दरिया है और डूबकर जाना है.'

आपकी जिंदग़ी में 'इश्क़' या 'लफ़्ज़ों' की थोड़ी भी क़द्र होगी तो आपको ग़ालिब ज़रूर याद होंगे. पुरानी दिल्ली के रहने वाले मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब की आज सालगिरह है. आइए आपको उनकी यादों में ले चलते हैं.

यूं बनी वो मकबूल ग़ज़ल
यह उस वक़्त की बात है जब बहादुर शाह ज़फर भारत के शासक थे. ज़ौक उनके दरबार में शाही कवि थे. तब तक मिर्ज़ा ग़ालिब के चर्चे दिल्ली की हर गली में थे. बादशाह सलामत उन्हें सुनना पसंद करते थे लेकिन ज़ौक को शाही कवि  होने के नाते अलग रुतबा हासिल था. कहा जाता है कि इसी वजह से ज़ौक और ग़ालिब में 36 का आंकड़ा था.

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एक दिन ग़ालिब बाज़ार में बैठे जुआ खेल रहे थे तभी वही से ज़ौक का क़ाफिला निकला. ग़ालिब ने तंज कसते हुए कहा, 'बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता.' इस पर ज़ौक आग बबूला हो उठे पर उन्होंने अपनी पालकी से उतरकर ग़ालिब के मुंह लगना ठीक न समझा. उन्होंने बादशाह सलामत से उनकी शिकायत कर दी. बादशाह ने ग़ालिब को दरबार में पेश होने को कहा.

ख़ैर, गा़लिब हाज़िर हुए. दरबार में सारे शाही दरबारी मौजूद थे. बादशाह ने ग़ालिब से पूछा कि क्या मियां ज़ौक की शिकायत जायज़ है ? ग़ालिब ने बड़ी चालाकी से कहा कि जो ज़ौक ने सुना वो उनकी नई ग़ज़ल का मक़्ता है. इस पर बादशाह सलामत ने ग़ालिब को लगे-हाथ पूरी ग़ज़ल पेश करने का हुक्म दे डाला. फिर क्या था. ग़ालिब ने अपनी जेब से एक कागज़ का टुकड़ा निकाला, उसे कुछ पल तक घूरा, और उसके बाद निकली ये कालजयी ग़ज़ल:

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े-ग़ुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा, न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोख़े-तुंद-ख़ू क्या है

चिपक रहा है बदन पे लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजते-रफ़ू क्या है

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जला है जिस्म जहां, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ते-फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आंख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है

रही न ताक़ते-गुफ्‍़तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद से कहिए कि आरजू़ क्या है

हुआ है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगरना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है

ग़ालिब के चंद अशआर
उनके देखे से जो आ जाती है चेहरे पर रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयां और

बस कि दुशवार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इनसां होना

चंद तस्वीर-ए-बुतां चंद हसीनों के ख़ुतूत
बाद मरने के घर से ये मेरे सामां निकला

इशरत-ए क़तरह है दरया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता
हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना के यूं होता तो क्या होता

ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोईए ज़ार ज़ार क्या, कीजिए हाय हाय क्यों

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इश्क़ पे ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
वो आये घर में हमारे, खुदा की कुदरत है
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं

इस सादगी पे कौन न मर जाए, ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

कहर हो या बला हो, जो कुछ हो
काश कि तुम मेरे लिए होते

हमने माना कि तग़ाफुल न करोगे, लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम, तुमको खबर होने तक
तग़ाफुल: उपेक्षा

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के

हमको उनसे वफा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफा क्या है

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे-नीमकश को
ये ख़लिश कहां से होती, जो जिगर के पार होता

 

ग़ालिब, छूटी शराब, पर अब भी कभी-कभी
पीता हूं रोज़े-अब्रो-शबे-महताब में
(रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-महताब: बदली वाले दिन और चांदनी रातें)

 

कर्ज़ की पीते थे मय, लेकिन समझते थे कि हां
रंग लाएगी हमारी फ़ाकामस्ती एक दिन

होगा कोई ऐसा कि कि ग़ालिब को न जाने
शायर तो वो अच्छा है, पर बदनाम बहुत है

मर गया फोड़ के सर ग़ालिबे-वहशी हाय, हाय
बैठना उसका वो आकर तेरी दीवार के पास

दर्दे-दिल लिखूं कब तक, जाऊं उनको दिखला दूं
उंगलियां फ़िगार अपनी, ख़ामां खूंचकां अपना
(फिगार: घायल, खामा: कलम, खूंचकां: जिससे खून टपक रहा हो)

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ग़ालिब का परिचय यूं लिखा था गुलज़ार ने
बल्ली मारां की वो पेचीदा सी गलियां
सामने टाल के नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की दाद-वो, वाह-वा
दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमियाने की आवाज़
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे
ऐसे दीवारों से मुंह जोड़ के चलते हैं यहां
चूड़ीवालान के कड़े की बड़ी बी जैसे
अपनी बुझती हुई सी आंखों से दरवाज़े टटोले
इसी बेनूर अंधेरी सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चिराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुराने सुख़न का सफा खुलता है
असद उल्लाह ख़ान ग़ालिब का पता मिलता है.

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