अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन एक मजबूत लोकपाल की मांग पर टिका था. इस आंदोलन ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की चूलें हिला दी थीं, जो उस वक्त भ्रष्टाचार के बड़े आरोपों का सामना कर रही थी. एक तरह से यह आंदोलन भी उन कारणों में से एक था, जिन्होंने नरेंद्र मोदी के केंद्र की सत्ता में आने के रास्ते को आसान किया.
बीजेपी ने 2014 के अपने चुनावी घोषणापत्र में कहा था, हम एक प्रभावी लोकपाल संस्था की स्थापना करेंगे. किसी भी स्तर पर भ्रष्टाचार से मजबूती और तेजी से निपटा जाएगा.
बता दें कि जनवरी 2014 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम को संसद के जरिए आगे बढ़ाया, लेकिन पांच साल बीत जाने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने मार्च 2019 में लोकपाल के पहले चेयरपर्सन और सदस्यों की नियुक्ति की.
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यह जानने के लिए वर्तमान लोकपाल कितना कारगर है और इसके लिए कितना बिल खर्च होता है जो टैक्सपेयर्स के पैसे से आता है, इंडिया टुडे ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत इस भ्रष्टाचार विरोधी निकाय में याचिका दाखिल की.
याचिका के पहले तीन प्रश्न थे-
1. लोकपाल के पास कितने मामले आए और कितनों का निस्तारण किया गया.
2. कितने मामलों में लोकपाल के जांच विंग की ओर से प्रारंभिक जांच के लिए आदेश दिए गए और उनमें से कितनों को जांच के लिए अन्य एजेंसियों को भेजा गया?
3. ऐसे कितने मामले हैं, जिनमें लोकपाल ने सक्षम प्राधिकारी को विभागीय कार्रवाई करने का आदेश दिया?
ज्यादातर मामले जन शिकायतों से जुड़े
सवालों के जवाब में लोकपाल ने कहा, 01.03.2020 तक कुल 1426 शिकायतें (निर्धारित प्रपत्र पर नहीं) दर्ज की गईं, जिनमें से 1200 शिकायतों को भारत के लोकपाल की ओर से निस्तारित किया गया. अधिकतर मामले जन शिकायतों से जुड़े थे. कुछ मामलों को केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) और मंत्रालयों आदि को स्टेट्स रिपोर्ट भेजने या आवश्यक कार्रवाई करने के लिए रेफर किया गया. कुछ मामलों में शिकायतकर्ताओं को शिकायत के प्रारूप के अधिसूचित होने के बाद शिकायत दर्ज करने की सलाह दी गई.
जवाब के मुताबिक, लोकपाल ने 1426 शिकायतों में से 1200 का निस्तारण किया है. इसका मतलब है कि 226 मामले अभी भी इसके पास लंबित हैं. कुछ मामलों को CVC और मंत्रालयों को स्टेट्स रिपोर्ट पेश किए जाने के लिए या आवश्यक कार्रवाई के लिए भेजा गया है, लेकिन ऐसे मामलों की संख्या को नहीं बताया गया है.
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खुद ही लोकपाल के मुताबिक अधिकतर मामले जन शिकायतों से जुड़े थे तो इसका मतलब यह है कि या तो लोग इस भ्रष्टाचार विरोधी निकाय के पास उचित मामलों के साथ नहीं पहुंच रहे हैं या भ्रष्टाचार कम हो गया है. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार, भ्रष्टाचार कम होने की बात नहीं है क्योंकि करप्शन परसेप्शन इंडेक्स (CPI-2019) में भारत की रैंकिंग पिछले वर्ष की तुलना में 78 से 80 तक फिसल गई है. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने देश में "अनुचित और अपारदर्शी राजनीतिक फाइनेंसिंग" पर भी सवाल उठाया है.
यहां तक कि उन मामलों में जहां लोकपाल ने कार्रवाई की है, तो उस पर क्या किया गया, ये भी हमारी आरटीआई याचिका के जवाब में हमें नहीं बताया गया. इससे पारदर्शिता या पारदर्शी होने की मंशा की कमी का संकेत मिलता है जो पूरी तरह से लोकपाल की अवधारणा के ही खिलाफ है.
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हमने भारत के लोकपाल से इसके हर महीने के वेतन और जब से ये प्रभावी हुआ है, उसके किराए पर हुए खर्चे के बारे में भी सवाल किया था. जवाब में बताया गया, लोकपाल की स्थापना के बाद से 03.03.2020 तक के वेतन पर कुल खर्च 2,93,69,064 रुपये और किराए पर 6,21,73,747 रुपये हुआ है.
रिपोर्ट्स के मुताबिक, लोकपाल का कार्यालय पांच सितारा होटल में किराए की जगह से चल रहा था. हर महीने 50 लाख रुपये का किराया दिया जाता था. उपरोक्त जानकारी 2020 साल की शुरुआत तक सही थी.