बयानबाजी जोरों पर है. कोई कह रहा है कि सबको हिंदू बना दो, तो कोई कह रहा है कि लोगों की पैदाइश मुसलमान के रूप में ही होती है. सिलसिला थम नहीं रहा. उलटे दोनों ओर जहर उगल रहे नेताओं की सभाओं में भीड़ बढ़ती जा रही है. लेकिन चिंता की बात मुस्लिम समुदाय को लेकर है. बयानों से उपजे विवाद सबसे ज्यादा नुकसान इसी कौम को पहुंचाते रहे हैं और पहुंचाने जा रहे हैं.
अब एक नजर मुस्लिम नेतृत्व पर. मुस्लिम नेतृत्व इसलिए कहना पड़ रहा है, क्योंकि हर मुस्लिम नेता की तरक्की की पहली सीढ़ी उसका मजहब ही होती है. और वह जिस पार्टी में है, उसे यह भरोसा दिलाकर आगे बढ़ा है कि वह मुसलमानों के वोट दिलवाएगा. मुस्लिम वोट बैंक. ऐसी गारंटी कोई हिंदू नेता नहीं दे पाता. साधु-संत भी नहीं. क्योंकि इनकी कोई सुनता ही नहीं.
इस पॉलिटिक्स के इतर जो सबसे ज्यादा गंभीर बात मुस्लिम कौम के साथ जुड़ी है, वह कट्टरपंथ और जहालत. 20 साल से अधिक उम्र के सिर्फ 3.6 फीसदी मुस्लिम ही ग्रेजुएट हैं. जबकि देशभर का यह औसत 6.7 प्रतिशत है. मुस्लिम महिलाएं किसी अन्य धर्म की महिलाओं में सबसे ज्यादा अशिक्षित हैं. हर दो में से एक महिला अनपढ़ है.
यही नहीं देश में मुसलमानों की एक बड़ी परेशानी है आबादी. आजादी के बाद से यह लगातार बढ़ती रही, जबकि हिंदुओं की घटती रही. मुस्लिम 9.9 प्रतिशत से बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गए, जबकि उसी दौर में हिंदू 85 प्रतिशत से घटकर 79.6 प्रतिशत पर आ गए. अब यदि साक्षी महाराज कहें कि हिंदू महिलाओं को चार-चार बच्चे पैदा करने चाहिए, तो वे हंसी का पात्र बन रहे हैं. लेकिन देश के बड़े हिस्से में मुस्लिम समुदाय में ये सिलसिला गंभीरता से जारी है. 2005-06 में हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक 45.7 प्रतिशत मुस्लिम दंपत्ति ही परिवार नियोजन के साधनों का उपयोग कर रहे हैं. हां, केरल अपवाद है, जहां का मुस्लिम समुदाय पढ़ा-लिखा है.
लेकिन इन मसलों पर कोई भी मुस्लिम नेता न तो बड़ी तकरीर करता है और यदि करे भी तो उसे सुनने कौन आएगा. सांसद असदउद्दीन ओवैसी कहते हैं कि एक मुस्लिम उसी सीट से चुनाव लड़ सकता है, जहां 30 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम हों. वरना उसका जीतना नामुमकिन है. दूसरा कोई उन्हें वोट देगा ही नहीं. ओवैसी के इस तर्क से यह बात फिर स्पष्ट होती है कि वोट बैंक पॉलिटिक्स मुस्लिम नेताओं की मजबूरी है. और मजहबी बातें करने से उसमें निखार ही आता है.