अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवादित स्थल के स्वामित्व विवाद संबंधी दीवानी दावों पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ 24 सितम्बर को अपराह्न अपना फैसला सुनाएगी. पिछली 26 जुलाई को न्यायमूर्ति एस. यू. खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल एवं न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा की विशेष पूर्ण खण्ड पीठ ने चारों दीवानी दावों पर विस्तृत सुनवाई के बाद निर्णय सुरक्षित कर लिया था.
इनमें पहला दावा करीब 60 वर्ष पूर्व 1950 में दायर हुआ था. वर्ष 1989 तक के दावे पहले फैजाबाद की दीवानी अदालत में विचाराधीन रहे. इसके बाद राज्य सरकार की ओर से तत्कालीन महाधिवक्ता के आग्रह पर इन्हें उच्च न्यायालय स्थानान्तरित किया गया. उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में इन दावों पर सुनवाई चल रही थी. वर्ष 1995 से इन दावों में गवाही शुरू हुई.
जनवरी 2010 से इनकी प्रतिदिन सुनवाई चल रही थी. पहला दावा 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने दायर कर पूजा की अनुमति देने का आग्रह किया. 1959 में निर्मोही अखाड़े ने दावा दायर कर ‘रिसीवर‘ से प्रभार दिलाने का आग्रह किया. 1961 में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने घोषणात्मक वाद दायर कर विवादित स्थल का कब्जा दिलाये जाने का आग्रह किया. चौथा दावा 1989 में भगवान श्रीराम लला विराजमान के नाम से ‘नेक्स्ट फ्रेंड’ के जरिए दायर किया गया. {mospagebreak}
सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड के अधिवक्ता जफरयाब जीलानी ने बताया कि अदालत ने इस मामले को 24 सितम्बर को अपराह्न 3.30 बजे फैसला सुनाये जाने के लिये सूचीबद्ध करने के आदेश दिये हैं. रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवादित परिसर में ताला पड़ने के बाद सबसे पहले अयोध्या के गोपाल सिंह विशारद द्वारा दीवानी अदालत में दाखिल याचिका पर अदालत ने 19 जनवरी 1950 को आदेश दिया कि अब न तो उस जगह से मूर्तियां हटाई जायेगी और न ही पूजा अर्चना से किसी को रोका जायेगा.
इसके बाद बाबरी मस्जिद पक्ष के लोगों ने 21 फरवरी 1950 को अदालत में अपील की और मांग की, चूंकि सन 1528 में बाबर के सेनापति मीर बाकी ने इस मस्जिद को बनवाया था. इसलिए इसे मुस्लिम समुदय को सौंपा जाये, जिसके विरोध में हिन्दू संगठन ने अदालत के बाहर जमकर प्रदर्शन किया. इसी बीच, तत्कालीन राम जन्म भूमि न्यास के अध्यक्ष रामचन्द्र परमहंस ने 5 दिसम्बर 1950 को रामजन्म भूमि को छोड़ने हेतु एक याचिका न्यायालय में दाखिल की, लेकिन यह याचिका अदालत के दाव पेंच में ही फंस कर रह गयी और देखते देखते लगभग पांच वर्ष बीत गये.
28 मार्च 1955 बाबरी मस्जिद के पक्षकारों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसमें विवादित परिसर से मूर्ति को हटाकर मस्जिद को मुसलमानों को सौंपने की अपील की गयी, जबकि हिन्दू मुस्लिम दोनों ही अपने अपने हिस्से में पूजा अर्चना कर रहे थे. दिसम्बर 1959 में एक नया मोड़ आया जब निर्मोही अखाड़े के महंत रामेश्वर दास ने रिसीवर को हटाकर रामजन्म भूमि की देखरेख अपने हाथ में लेने की याचिका दायर कर दी. {mospagebreak}
दूसरी ओर, मस्जिद की जमीन को अपने कब्जे में लेने के लिये सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने 1961 में न्यायालय में वाद दाखिल किया, जिससे विवाद और उलझता ही चला गया. मंदिर और मस्जिद समर्थक विवादित स्थल एक दूसरे से मुक्त कराने के लिए गणित में लगे रहे, लेकिन नतीजा ‘ढाक के तीन पात’ ही रहा और देखते ही देखते तीन दशक बीत गये.
मुकदमे में उस समय मोड़ आया जब एक फरवरी 1986 को जनपद न्यायाधीश के. एम. पांडेय ने मंदिर के पक्षकार उमेशचन्द्र पांडेय की याचिका पर मंदिर का ताला खोलने का आदेश दे दिया. उस समय प्रदेश में कांग्रेस और केन्द्र में राजीव गांधी की सरकार थी, जो मस्जिद के समर्थकों को अच्छा नहीं लगा और जिला न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ सबसे पहले अयोध्या निवासी मोहम्मद हाशिम ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील दायर की.
इसके बाद मई 1986 में सुन्नी वक्फ बोर्ड ने भी उच्च न्यायालय में ताला खोले जाने के विरुद्ध याचिका दायर की. हालांकि, उच्च न्यायालय ने जिला न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा, तब से पूजा लगातार हो रही है. 6 दिसम्बर 1992 को कार सेवकों द्वारा कारसेवा के दौरान विवादित ढांचा गिराये जाने के बाद नये युग की शुरुआत हो गयी. देश साम्प्रदायिकता की आग में जलता रहा और राजनीतिक लोग इसका फायदा उठाते रहे.