धूप में पककर तांबई हो चुके हाथ मुझसे बात करते हुए साथ-साथ लाल मिर्चियां तोड़ रहे हैं. पड़ोस के गांव से काम मिला. एक सूप मिर्च के डंठल तोड़ने पर 5 रुपये. बताते हुए वे खटाखट उसका ऊपरी हिस्सा अलग कर रही हैं. छींक से बचने के लिए नाक पर कपड़ा बंधा हुआ.
ये आशादेवी हैं. साल की शुरुआत में एक धार्मिक जत्थे के साथ इनका परिवार भी पाकिस्तान से आकर जोधपुर में बस गया. शहर से बाहर चोखां के उस हिस्से में, जहां बीते महीनेभर से बांस की बल्लियां और चादरें ही इनका घर हैं. पति रोज सुबह कमाने निकलते हैं. कभी सीमेंट, चावल की बोरियां उठाने का काम मिलता है, कभी वो भी नहीं.
'कंपीटिशन' ज्यादा है यहां. तो मैंने भी काम पकड़ लिया! आशा ठीक ठाक हिंदी के साथ अंग्रेजी शब्द बोलती हैं.
इस बार मेरा मुंह मिर्च से आंखें बचाने की कोशिश छोड़कर सीधे ताकता है. तो क्या ये औरत पढ़ी-लिखी होगी! सवाल को बाद के लिए टालकर मैं बच्चे की तबीयत पूछती हूं.
हां. अब ठीक है. पूरे महीने बुखार रहा. अस्पताल गए तो पहचान मांगी. हमारे पास न आधार कार्ड है, न वोटर कार्ड. पाकिस्तानी पासपोर्ट है. वो दिखाते तो धकियाकर भगा दिया जाता.
पहले भी ऐसा हो चुका है. आतंकवादी कहकर पुलिस बुलवा ली. अब लोग अपनी तबीयत संभालें, या पुलिसवालों से उलझें.
हम मिन्नतें करते रहे. अपना नाम बताया. खालिस हिंदू. खूब रोए-धोए. लेकिन किसी ने बेटे को नहीं देखा. थककर दुकान से दवा ले आए. बुखार चढ़ता-उतरता रहा.
असल मुसीबत रात में आती, जब वो जोरों से रोने लगता. झोपड़ी तो देख रही हैं हमारी! पीठ सीधी करके चल नहीं सकते. बिजली है नहीं. अंधेरे में पत्थरों पर सांप-बिच्छू डोलते हैं. कइयों के साथ हादसा हो चुका. पीठ झुकाए-झुकाए ही बच्चे को सीने से लगाए टहलाती रहती, जब तक वो थककर चुप न हो जाए.
पहली बार था, जब रात में इनकी सुबकी सुनी. तीन दिनों से खाली लौट रहे थे. खाने को पैसे नहीं. जो गहना लेकर आए थे, वो इस जमीन के नकली पट्टे के लिए दे चुके थे. कंधे छुए तो बिलखकर रो पड़े.
छह फुट का आदमी, जो वहां जमींदार की मार खाकर भी चुप रहा, वो रो रहा था. तब लगा, यहां आकर हमसे गलती हो गई!
मिर्च तोड़ते आशा के हाथ अब भी रुके नहीं हैं. पास में एक बोरा, जिसमें सूप के हिसाब से और मिर्च भरी हैं.
मुझे याद आता है, जब पहली बार मैंने लाल मिर्चें तोड़ी थीं. तीखी जलन, हाथों में जैसे अंगारे रख दिए हों. ठंडा कपड़ा लपेटा. शहद लगाया. आखिर में फ्रिजर में हाथ डालकर खड़ी हो गई. वही आखिरी बार था, जब मिर्चों से मेरा वास्ता पड़ा.
आधार कार्ड से अस्पताल का कनेक्शन समझने के लिए मैं जय आहूजा से बात करती हूं. शरणार्थियों पर काम करने वाले निमित्तेकम NGO के प्रेसिडेंट आहूजा मानते हैं कि पाकिस्तान से आ रहे शरणार्थियों के साथ ये दिक्कत तो है. राजस्थान के सरकारी अस्पतालों में ओपीडी में दिखाते हुए पहचान पत्र देना होता है. अगर मरीज की हालत गंभीर है तो उसे भर्ती तो किया जाएगा लेकिन आधार कार्ड तब भी चाहिए.
इन्हें कार्ड मिलने में कितने दिन लग जाते हैं?
लॉन्ग टर्म वीजा मिलने के बाद ही आधार कार्ड के लिए अप्लाई कर सकते हैं. इसके साथ दो भारतीय गारंटर चाहिए. वीजा मिलने में कई पेंच हैं. कई बार 6 महीने में मिल जाता है, कई बार लंबे समय तक नहीं मिल पाता. ऐसे में गरीब, अनपढ़ लोग सरकारी अधिकारियों के चक्कर काटें, या पेट भरने के लिए काम-धाम खोजें.
बिल्कुल यही बात बताते हुए बस्ती का एक शख्स कहता है- आजकल रोज सुबह एक डॉक्टर आ रहा है. वही देख जाता है कि किसी को दवा-दुआ तो नहीं चाहिए. बुखार वाले लोगों को सुई लगा जाता है.
संयोग से मैं जब वहां थी, तभी वो 'डॉक्टर' भी पहुंचा.
बाइक के पीछे पेटी बंधी हुई. मैं अंदाजा लगाती हूं कि इसी में दवाएं-सुइयां होंगी. डिग्री का पूछने पर डॉक्टर हिचकिचाता है. मैं और कुरेदूं, इससे पहले बोलता हुआ चला जाता है कि आज किसी को बुखार तो नहीं है! अब कल आऊंगा.
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मेरा अगला पड़ाव वहां से कुछ ही कदम दूर एक घर है, जहां मदनलाल और उनकी पत्नी रहते हैं. इस घर में चारपाई भी नहीं. नीचे बोरे पर चादरें बिछी हुई हैं. पत्नी जिद करती हैं कि मैं यहां न बैठकर किसी चारपाई वाले घर में चलूं. काफी तोल-मोल के बाद हम वॉक पर राजी हो जाते हैं.
चलते हुए पहाड़ी तक जाते हैं. वे इशारा करते हुए कहती हैं- जब पानी नहीं मिलता, यहीं से हमारे बच्चे पानी पी लेते हैं. यहीं गाय-गोरू, कुत्ते भी गर्मी से बेहाल बैठे रहते हैं.
मेरे सामने जमा हुआ पानी है. कोई हलचल नहीं, सिवाय कीड़ों के रेंगने के.
कुत्ते भी वही पानी पी रहे थे. पेशाब, गंदगी और उदासी की गंध पानी में घुली हुई है. जब ये पानी पीकर बच्चे लौटते होंगे तो उनकी मांओं को कैसा लगता होगा! मे
मेरे बैग में पानी की एक बोतल है. प्यास से चटकते गले के बावजूद मैं उनके पानी पीने की हिम्मत नहीं कर पाती.
बस्ती की तरफ लौटते हैं तो बच्चे मिलते हैं. पहचान की मुस्कान लिए. एक बच्चा पास आकर बोलता है- दीदी, आज यहीं रुक जाओ. तुमको सिंधी सिखाएंगे.
मैं पूछती हूं- और सब्जी क्या खिलाओगे. चौड़ी हंसी एकदम से सिमट जाती है, मानो वाकई सोच रहा हो कि मुझे 'इनवाइट' करके गलती तो नहीं हो गई!
बात बदलकर पूछती हूं- स्कूल जाते हो?
हां, जाते तो हैं, लेकिन समझ नहीं आता.
क्यों?
वो हिंदी में पढ़ाते हैं. हमको सिंधी आती है. एक बच्चा कविता करता है.
उजड़ी बस्ती में आसपास ढेर सारे बच्चे ही बच्चे दिखते हैं. चेहरे पर भूख-प्यास, हारी-बीमारी की हल्की-गहरी छाप. ये बच्चे तो हैं, लेकिन बचपन के बगैर जीते हुए.
(नोट: पीड़ित परिवारों के नाम और चेहरे छिपाए गए हैं.)
जोधपुर में उजड़े शरणार्थी हिंदू कैंप की ये पांचवीं और आखिरी कहानी है. इससे पहले की कहानियां पढ़ने के लिए ऊपर लिंक पर क्लिक करें.