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मुस्लिमों से चार गुना ज्यादा बढ़े हिंदू

आंकड़े अपने में आप में बेईमान नहीं होते, लेकिन उनमें इतनी ताकत भी नहीं होती की वे अपना मनमाना इस्तेमाल रोक सकें. बिहार चुनाव से ठीक पहले आए जनगणना-2011 के आंकड़ों का धार्मिक खंड कई मामले में इसी त्रासदी से गुजर रहा है. इन आंकड़ों को मुख्यय रूप से इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे हिंदू आबादी घट रही हो और मुस्लिम आबादी बढ़ रही हो.

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Symbolic Image
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आंकड़े अपने में आप में बेईमान नहीं होते, लेकिन उनमें इतनी ताकत भी नहीं होती की वे अपना मनमाना इस्तेमाल रोक सकें. बिहार चुनाव से ठीक पहले आए जनगणना-2011 के आंकड़ों का धार्मिक खंड कई मामले में इसी त्रासदी से गुजर रहा है. इन आंकड़ों को मुख्यय रूप से इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे हिंदू आबादी घट रही हो और मुस्लिम आबादी बढ़ रही हो.

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देखने का एक नजरिया यह तो इसे देखने को और भी बहुत से सटीक तरीके हो सकते हैं. मसलन अगर यह कहा जाए कि 2001 से 2011 के बीच मुसलमानों की तुलना में हिंदुओं की आबादी चार गुना बढ़ी तो यह भी तथ्यों पर एकदम खरी बात होगी. इस दशक में मुसलमानों की संख्या में 3.4 करोड़ और हिंदुओं की संख्या में 13.8 करोड़ का इजाफा हुआ. इससे स्पष्ट है कि भारत की आबादी में इस दशक में जितने मुसलमान जुड़े हैं उससे चार गुना हिंदू जुड़े हैं.

प्रचलित मींमासा में दूसरा तथ्य यह आ रहा है कि मुस्लिम आबादी के बढ़ने की रफ्तार हिंदू आबादी बढ़ने की रफ्तार से तेज है. तो इसमें हमें अपनी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के हिसाब से भी सोच लेना चाहिए. इसके हिसाब से हम आबादी को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं. खास बात यह है कि इस दिशा में दोनों सांप्रदायों के लोगों ने पहल की और दोनों धर्मों में जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार पिछले दशक की वृद्धि दर से कम हुई है. यानी तमाम भ्रांतियों के बावजूद इतना तो तय है कि मुसलमान भी पहले से कम रफ्तार से आबादी बढ़ाने के फलसफे से सहमत हैं.

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मुसलमानों की सामाजिक दशा का क्या
मीनमेख निकालने वाले यहां भी पूछ सकते हैं कि आखिर मुसलमान उसी तेजी से जनसंख्या पर ब्रेक क्यों नहीं लगा रहे हैं, जिस तरह हिंदू. तो उन्हें सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से भी मुखातिब बने रहना चाहिए. इसके मुताबिक कई मामलों में भारत के मुसलमानों की दशा दलितों की आर्थिक सामाजिक दशा से गई गुजरी है. सरकारी नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी भी आबादी के अनुपात में कम है. यह भी मानी हुई बात है कि जनसंख्या नियंत्रण और आर्थिक सामाजिक स्तर में उठान का सीधा रिश्ता है.

भारत में अशिक्षित और गरीब समाज मध्यमवर्गीय परिवारों की तुलना में आज भी जनसंख्या के बारे में अलग धारणा रखता है. हो सकता है सरकार भविष्य में जब जाति आधारित जनगणना के आंकड़े जारी करे तो पता चले कि वंचित जातियों और संपन्न जातियों में जनसंख्या को लेकर किस तरह के ट्रेंड हैं. आंकड़ों के अभाव में रोजमर्रा के अनुभव से तो यही दिखता है कि गरीब परिवार आज भी उस धारणा से पूरी तरह कट नहीं पाए कि जितने हाथ होंगे उतनी कमाई. जबकि मध्यम वर्ग सोचता है कि जितने कम बच्चे होंगे, उतना बेहतर लालन-पालन. हालांकि यह वर्ग भी बेटे-बेटी के फर्क के फेर में घिरा है.

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बहरहाल यह सोचने की जरूरत है कि निर्जीव आंकड़ों को सजीव मानवजाति के लिए अनावश्यक चुनौती के तौर पर पेश न किया जाए. आंकड़ों को तंज या हिकारत की तरह उछालने से बेहतर है कि यह सोचा जाए कि पिछड़े लोगों को तरक्की की राह में बराबर का भागीदार कैसे बनाया जाए. जिस दिन तरक्की के आंकड़े सब धर्मों के लिए एक से आने लगेंगे, हो सकता है उस दिन जनसंख्या वृद्धि के आंकड़े भी जाति-धर्म-क्षेत्र की बंदिशों से परे होकर एक से आ जाएं.

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