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आंखों देखी: सुंदरबन के मरीचझापी में हुआ वो 'सरकारी कत्लेआम' जिसकी आजाद हिंदुस्तान में कोई मिसाल नहीं!

'पुलिस ने द्वीप को चारों तरफ से घेर रखा था. गोलियां चल रही थीं. झोपड़ियां जलाई जा रही थीं. पूरे पेट वाली औरतों को लात मारकर बच्चा गिरा दिया गया. बचते-बचाते मैं दूसरे द्वीप भागा. गहरा अंधेरा. काला पानी, जिसमें मछलियों की गंध कम, खून की ज्यादा थी. तैरते हुए कितनी बार लाशें टकराईं? ये याद नहीं. बस, भूख और डर बाकी रहा.'

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सुंदरबन के कुमिरमारी द्वीप पर अब भी मरीचझापी के कुछ सर्वाइवर बाकी हैं.
सुंदरबन के कुमिरमारी द्वीप पर अब भी मरीचझापी के कुछ सर्वाइवर बाकी हैं.

पश्चिम बंगाल का सुंदरबन! घने जंगल, दलदल, जहरीले सांपों और बंगाल टाइगर के लिए जाने जाते इस डेल्टा का एक और चेहरा भी है. साल 1979 में यहां के मरीचझापी द्वीप में एक नरसंहार हुआ. बांग्लादेश से आए हिंदुओं का कत्लेआम. हजारों खत्म हो गए. हजारों गायब हो गए. और गायब कर दी गई वो कहानी, जिसके हर शब्द से खून और नफरत रिसती है.

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सुंदरबन के इस जलियांवाला की अब कोई याद नहीं, सिवाय पड़ोसी द्वीप कुमिरमारी पर लगे संगमरमरी पत्थर के, और उन लोगों के, जिनके चेहरों के साथ याददाश्त पर भी गहरी झुर्रियां दिखती हैं.

सिलवटों से भरी इन्हीं यादों को टटोलने हम दिल्ली से पश्चिम बंगाल पहुंचे.

दक्षिण 24 परगना में गदखाली घाट से होते हुए कुमिरमारी जाना था. जाने से पहले स्थानीय लोगों की सख्त हिदायत थी- ‘सुबह बहुत जल्द निकलना वर्ना पानी में फंस जाओगी’. करीब 45-सीटर जहाज पर डूबते नेटवर्क और डूबते दिल के साथ सफर शुरू हुआ, जिसे गोसाबा के यूनियन घाट पर पहला पड़ाव मिला. यहां जहाज पर डीजल भरा गया और हम कुमिरमारी की तरफ बढ़ सके.

लगभग 3 घंटे के समुद्री रास्ते में आसपास के इलाकों की कई कहानियां सुनने को मिलीं. सब की सब गरीबी और बेबसी में लिथड़ी हुई.

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लकड़ी की छोटी-छोटी नावों पर द्वीप के लोग मछलियां पकड़ने निकलते हैं तो अक्सर ही शेर उन्हें गर्दन से दबोचकर ले जाता है. कई बार मगरमच्छ हमला कर देता है. तब नाव चलाकर एक जना अकेला लौटता है. शेर का हमला और खून-सनी लाश देख चुका वो शख्स दो-चार रोज घर बैठता है, लेकिन फिर निकल पड़ता है. ‘खाना शेर को भी चाहिए. आदमी को भी. तलाश एक ही की पूरी होती है.’ कहानी का सार था.

दोपहर करीब डेढ़ बजे हम कुमिरमारी पहुंचे. उतरते हुए फिर चेतावनी मिली- पैर जमाकर चलिएगा. दलदली जमीन है, और सांप भी मिलेंगे.

सामने ही वो सफेद पत्थर दिखता है, जो कत्लेआम की याद में हाल ही में लगाया गया. छोटा-सा टुकड़ा. नाम या तारीख के बगैर ये किसी आम पत्थर से अलग नहीं, सिवाय इसके कि गरीब द्वीप पर कच्चे मकानों के बीच ये अकेला संगमरमर है.

हाल में राज्य की विपक्षी पार्टी ने मरीचझापी दिवस मनाने की शुरुआत की. 31 जनवरी को लोग जुटते हैं. मरे और खोए हुओं की याद में पत्थर के सामने धूपकाठी (अगरबत्ती) लगाते हैं. द्वीप कुछ घंटों के लिए शोरगुल और इंसाफ की आवाजों से भर जाता है. भरे पेट और खाली दिल लिए लोग यहां से वहां घूमते हैं. तस्वीरें निकालते हैं. इसके बाद फिर सालभर की चुप्पी.

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मरीचझापी का पन्ना इतिहास की किताब से इस सलीके से फाड़ा गया कि उसके खोने की किसी को खबर तक नहीं हुई.

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पैर जमाते हुए हम अंदर की तरफ बढ़े, जहां पंचानन मंडल इंतजार कर रहे थे.

शरीर से दोगुनी बड़ी सलेटी टी-शर्ट और झूलते हुए पायजामे वाला ये शख्स मिलते ही बिना भूमिका कहता है- ‘मेरी औरत मर रही है. उसको बहुत बुखार है.’

ये वो टॉपिक नहीं, जिसपर बातचीत के लिए मैं तैयार होकर आई थी. संभलते हुए कहती हूं- अरे, मरेंगी क्यों! बुखार तो उतर जाएगा.

‘नहीं! हड्डी का बुखार है. गरीब आदमी. दवा नहीं दे पाता. खाना नहीं दे पाता. और तसल्ली भी नहीं दे पाता. वो मर जाएगी. मेरी औरत मर जाएगी.’ छितरी हुई आवाज लगातार बुदबुदा रही थी.

जितनी सिलवटें चेहरे पर हैं, शायद उससे कहीं ज्यादा पंचानन की किस्मत में होंगी. कभी हिंदुस्तान का हिस्सा रहा ये चेहरा बंटवारे के बाद अपने घर-बार समेत पहले पाकिस्तानी, और फिर बांग्लादेशी हो गया. कुछ सालों में तीन-तीन देश पाने-खोने के बाद भी बदकिस्मती की तहें खुलनी बंद नहीं हुईं.

बांग्लादेश में दलित हिंदुओं का दर्जा वही था, जो गरीब के दस्तखत का. गैरजरूरी और जगह घेरने वाले ये लोग वहां से भी खदेड़े जाने लगे. बचते-बचाते वे हिंदुस्तान पहुंचे, लेकिन भगाए जाने का सिलसिला यहां आकर भी रुका नहीं.

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कटखनी बिल्ली को भी कहीं न कहीं ठौर मिल जाता है, लेकिन बांग्लादेशी, खासकर दलित हिंदुओं के हालात उससे भी गए-बीते रहे, जिसकी झलक सामने बैठा शख्स था.

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अब तक मेरी शहरी आंखें पंचानन के साथ एडजस्ट हो चुकी थीं. तामझाम हटाकर मैं कैमरा हाथ में पकड़ लेती हूं और वो बोलने लगते हैं. पहले बांग्ला. फिर मेरी मुश्किल समझते हुए छत्तीसगढ़ी मिली हिंदी, जो दंडकारण्य में बिताए समय का असर था.

मैं 18 साल का था, जब मरीचझापी पहुंचा. चारों ओर पानी ही पानी. जंगल ही जंगल. धीरे-धीरे हमने बस्तियां बनाईं. बहुत सारे लोग थे. बहुत हो-हल्ला होता.

हाथों को चिड़िया के पंखों की तरह फैलाकर बताते पंचानन की पानी-तिरती सलेटी आंखें डूबी हुई हैं, मानो दोबारा साल 1979 में लौट गए हों.

हम घर-बार बसा चुके थे कि एक रोज पुलिस आई और सबको द्वीप छोड़ जाने को कहा. हमने मना कर दिया. फिर एक दिन पुलिस ने मरीचझापी को चारों तरफ से घेर लिया. न कोई आ सकता था, न बाहर जा सकता था.

वैसे तो हमारे पास बाकी सब था, लेकिन पीने के पानी और अनाज के लिए हम दूसरे द्वीप पर जाते. हम अपने ही घरों में कैद हो गए. दिन बीतते रहे और पुलिस जमी रही. लोग भूख और गंदा पानी पीने से मर रहे थे. बचे-खुचे आदमी घेरा तोड़कर छोटी-छोटी बोट में भागने लगे.

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पुलिस शायद इसी इंतजार में थी. उसने 'गोलीबारी' शुरू कर दी.

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‘वहां से हमें बुलाया था कि यहां खाना मिलेगा. यहां गोली मिली.’

आप कहां थे?
मैं लुक (छिप) गया था. लुके-लुके चार-पांच सौ लोगों को मरते देखा.
 
'चार-पांच सौ'- दिल ही दिल में दोहराती हुई पंचानन को देखती हूं. पूरी की पूरी शख्सियत तूफान में उखड़ आए पेड़ की जड़ सरीखी. भटकन ने शायद सारा गुस्सा, सारी चुभन सोख ली हो.

पूरा परिवार, जाने-पहचाने लोग आंखों के सामने खत्म हो गए. कुछ नदी में बहते दिखे. कुछ यहीं पड़े मिले. अब ले-देकर एक औरत बाकी है, वो भी मर जाएगी.

वे फिर बीमार औरत (पत्नी) के बारे में सोचने लगते हैं. 

पास ही बैठे गोपाल मंडल को सबकुछ जबानी याद है. वे कहते हैं- हमने स्कूल, अस्पताल, हाट सब बना लिया था. बिना किसी मदद के. यही बात सबको खटकने लगी. तब पश्चिम बंगाल के सीएम ज्योति बसु थे. उन्होंने आदेश दिया कि ये लोग जंगल खत्म कर रहे हैं, इन्हें हटाया जाए.

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सरस्वती पूजा से एक रोज पहले की बात है. सुबह साढ़े 9 बजते-बजते पुलिस लॉन्चर्स ने हमें घेर लिया. धारा 144 लग चुकी थी. बहुत दिनों तक घेरा रहा. एक-एक करके घरों का अनाज खत्म होने लगा. हम जंगल जाकर जो कुछ भी खाने लायक लगता, लाने लगे.

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नर्म घास, नई पत्तियां जो मिलता, उबालकर खा जाते. लेकिन पेट खाली का खाली रहता. द्वीप पर पीने का पानी नहीं था. जो थोड़ा-बहुत था, उसमें जहर घोल दिया गया. खाली पेट अधमरे हो चुके लोग जहर मिला पानी पीकर मरने लगे.

बचे हुओं ने अनाज और साफ पानी के लिए भागना शुरू किया, तभी पुलिस की तरफ से फायरिंग होने लगी. पता नहीं कितने लोग गोलियों से मरे. भाग रहे लोगों की बोटों को बड़े-बड़े जहाज टक्कर मार रहे थे. डरे हुए आदमी मगरमच्छों से भरे पानी में कूदकर मर गए.

ग्रामीण बांग्ला में खटाखट बोल रहे गोपाल से काफी पहले मेरी फोन पर बात हुई थी. जब मैंने बताया कि दिल्ली से आ रही हूं. तो फोन पार से हंसती हुई आवाज आती है- ‘मूल छाड़ा शाखा (बिना जड़ों की टहनी) को देखने उतनी दूर से क्यों आएंगी आप!’

गोपाल अब इस छोटे-से द्वीप के प्रभावशाली आदमी हैं, लेकिन तीन-तीन बार जड़ों से उखाड़े जाने का गुस्सा उनकी हर बात में झलकता है.

मैं जब दूसरे लोगों से मिलवाने को कहती हूं, तपाक से जवाब आता है- पूछ तो लिया. यही सब बताएंगे. दुख वही है, तो बात भी वही होगी. अब आप जाइए. अंधेरा हो रहा है.

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मुझे परेशान देख तना हुआ चेहरा नर्म पड़ते हुए बोल उठता है- शामने अनेक कादा आछे (आगे बहुत कीचड़ है). आप चल नहीं सकेंगी.

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अब हम करीब दो किलोमीटर आगे बिजय भईं से मिलने जा रहे हैं. जूते हाथ में लेकर पैर जमाकर चलने के बाद भी सहारा लेना पड़ रहा था. 

कच्ची ईंटों से बना ये घर अब तक का सबसे भव्य ठिकाना था. अधबनी बाउंड्री फर्लांगते हुए हम भीतर जाते हैं.

पंचानन अब भी साथ था. किसी लीडर की ही फुर्ती से वो बिजय को बाहर बुलाता और सारी बातें समझाता है. बीच-बीच में मेरी तरफ इशारा भी कर रहा है. सरपट बोली गई इस बांग्ला के दो ही शब्द मेरे पल्ले पड़ते हैं- मरीचझापी और क्षुधा (भूख).

हाथ हिलाते हुए बिजय मना कर रहा है. वो किसी बात पर नाराज है. पता चला कि उसके पास खाने को पैसे नहीं. बेटा चेन्नई से जो भेजे, वही खाते है. बूढ़े हैं, उफनते पानी में मछली-केकड़ा पकड़ने नहीं जा पाते.

भूख और भात के बीच ‘अ-पट’ दूरी पूरे द्वीप में बिखरी हुई.

काफी झिकझिक के बाद बिजय बात करने को राजी हो जाते हैं, वो भी इसलिए कि दूरेर नारी (दूर से आई महिला) को लौटने में अंधेरा न हो जाए.

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काले समुद्र पर आसमान का नीला टुकड़ा चमका हो, एकदम से ऐसे हंसते हुए वे कुर्सी खींच लाते हैं. साथ में कोई पुलिंदा भी था. एक कागज निकालकर पकड़ाते हैं. ये रिलीफ एलिजिबलिटी सर्टिफिकेट था, जिसपर चार शरणार्थियों के नाम लिखे थे.

बिजय बताते हैं- चार नहीं, पांच लोग थे. एक बहन थी, जो भूख से मर गई.

आप कैसे बचे रहे? क्रूर पत्रकारी जिज्ञासा सिर उठाती है.

हम घास चबाते थे. कभी-कभी कोई फल तोड़कर जंगली जानवर के आगे फेंकते. अगर वो उसे खा लेता तो हम फिर पूरे जंगल में वैसा ही फल खोजते. बहन छोटी थी, वो माछ-भात मांगते हुए मर गई.

मौत का सिलसिला रुका नहीं. मरीचझापी से भागे माता-पिता कुमिरमारी पहुंचे, लेकिन ज्यादा नहीं जिए. एक-एक करके पूरा परिवार खप गया.

कागज के आखिरी पन्ने पर अंगूठा लगा हुआ है. उनके पिता का अंगूठा. अब यही छाप बिजय का परिवार है.

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पीछे उनकी पत्नी बैठी हुई हैं. बीच-बीच में कुछ-कुछ बोलती रहती हैं. वो चेन्नई में अपने बेटे की बात करती हैं. रसोई की तरफ इशारा करती हैं.

कच्ची दीवार पर मछली पकड़ने का जाल लटका हुआ है. वे पोखर में मछली पकड़ती हैं, वो इसी द्वीप पर जन्मीं. लेकिन पति के दर्द की छाया उनपर भी डोलती है.

आसमान लाल हो चुका. हड़बड़ी में निकलते हुए आखिरी सवाल था- ‘कभी बांग्लादेश जाने का मन नहीं करता!’

करता क्यों नहीं! वहां घर था. जमीन थी. वहीं पैदा हुए. जाना तो चाहते हैं, लेकिन जा सकते तो इतनी मार खाकर यहां क्यों रहते! बोलते हुए बिजय हंसते हैं. 80 पार वाली हंसी, जिसमें सबकुछ छूटा हुआ है.

जाते-जाते मैं मुड़कर एक फोटो खींच लेती हूं. बिजय कहीं जाने की तैयारी में साइकिल पकड़े हुए. देहरी पर उनकी पत्नी बैठी हुई.

कुछ तस्वीरें दुख का सीधा अनुवाद होती हैं. 

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शाम करीब साढ़े 7 बजे बोट गदखाली घाट से टकराई. दोबारा आने के वादे के साथ मैंने दलदल और दर्द से भरे उस द्वीप से विदा ली.

कोलकाता में दीप हलदर से मुलाकात हुई. इंडिया टुडे डिजिटल के पूर्व संपादक दीप मरीचझापी पर किताब लिख चुके हैं. 

‘ब्लड आइलैंड’ नाम की किताब उस दौर के लोगों और भूले-बिसरे आंकड़ों का दस्तावेज है. वे कहते हैं- मरीचझापी नरसंहार वैसे तो 1979 में हुआ, लेकिन इसकी कहानी काफी पीछे से शुरू होती है. भारत के बंटवारे के बाद पाकिस्तान और फिर बांग्लादेश से हिंदू भागकर पश्चिम बंगाल आने लगे. ये सिलसिला दशकों तक चलता रहा.

इतने लोगों को संभालने की ताकत बंगाल में नहीं थी. तभी दंडकारण्य परियोजना बनी. इसमें लोगों को छत्तीसगढ़ (तब मध्यप्रदेश का ही हिस्सा), उड़ीसा और आंध्रप्रदेश भेजा जाने लगा.

शरणार्थी जब जा रहे थे, तब लेफ्ट फ्रंट ने वादा किया कि वे अगर सत्ता में लौटे तो उनको वापस बंगाल बुला लेंगे. दो साल बाद वे सत्ता में तो आए, लेकिन अब उनका लोगों को वापस बुलाने का इरादा नहीं था.

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इंडिया टुडे के पूर्व संपादक दीप हलदर मरीचझापी पर किताब लिख चुके हैं.

इधर बंगाली रिफ्यूजियों ने अपने लिए सुंदरबन के एक द्वीप को पसंद कर रखा था. ज्यादातर लोग मछुआरा समुदाय से थे. वे हजारों की संख्या में आने लगे. कहा जाता है कि साल 1978 के आसपास लगभग डेढ़ लाख लोग मरीचझापी में बस चुके थे. वो भी बिना सरकारी मदद के.

भड़की हुई सरकार ने कहना शुरू कर दिया कि रिफ्यूजी जंगलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. उनपर द्वीप छोड़ने का दबाव बढ़ने लगा. आखिरकार सरकार ने मरीचझापी पर आर्थिक पाबंदी लगा दी. लोगों के पास पीने का पानी नहीं बचा. बच्चे-बूढ़े मरने लगे.

पुलिस के पहरे को तोड़कर शरणार्थी भागने लगे, तब उनपर फायरिंग शुरू हो गई. काफी सारे लोग मारे गए. ये नरसंहार का पहला चैप्टर था.

इसके बाद के महीनों में काफी सारे अटैक होते रहे. औरतों को आधी रात में घरों से उठाकर उनका रेप होता ताकि शरणार्थियों पर दबाव बने. लेकिन ये फिर भी नहीं गए. आखिरकार मई में इनपर तगड़ा हमला हुआ. हजारों झोपड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया. जान बचाकर भागते लोगों को जहाज में ठूंसकर कोलकाता और फिर दंडकारण्य भेज दिया गया.

कितने मरे. कितने घायल हुए. कितने गायब हो गए, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं. लोगों को मारकर नदी में फेंक दिया जाता था. कहते हैं कि मरने वालों की संख्या 10 हजार तक हो सकती है. लेकिन सरकारी आंकड़ा 2 से लेकर 8 पर रुक जाता है.

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यूनियन घाट गोसाबा के बाजार पर अब भी चुनाव की छाप दिखती है. सांकेतिक फोटो

लेफ्ट फ्रंट को शरणार्थियों पर गुस्सा क्यों था?

स्टोरी पर काम करते हुए बंगाल में दो पार्टियों के लोगों से बात हुई. ज्यादातर दलित कार्यकर्ता, जो मानते हैं कि संभ्रांत बांग्लाभाषी उनकी मेहनत को पचा नहीं पा रहे थे. 

असल में रिफ्यूजियों को वापस बंगाल में बसाने का वादा करके लेफ्ट फ्रंट ने वोट तो बटोरे लेकिन सत्ता पाने के बाद इरादा बदल गया. इधर नामशूद्र समुदाय (बंगाल के दलित) बाकी राज्यों से बंगाल लौट रहा था. वो शहर नहीं, बल्कि द्वीप में बसने लगा. वादे से पीछे हट चुकी सरकार को डर लगने लगा कि अगली बार काफी सारे वोट उसके खिलाफ जा सकते हैं. यही देखते हुए उसने लोगों को खदेड़ने की सोची. 

marichjhapi massacre of Hindu refugees in west bengal

आनन-फानन मरीचझापी को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया. अब वहां बसे हुए लोगों को भगाना आसान था. 

दस्तावेजों के मुताबिक जनवरी 1979 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने केंद्र से बात की, जिसमें चिंता थी कि शरणार्थी दंडकारण्य कैंप को छोड़कर जबरन बंगाल में घुस चुके हैं. इसके तुरंत बाद धारा 144 लगा दी गई. साथ में आर्थिक पाबंदी भी लागू हो गई. ये वही पाबंदी है, जो दुश्मन मुल्क को कमजोर बनाने के लिए कई देश लगाते रहे हैं. लेकिन ये सब अपने ही देश में, अपनों के ही साथ हो रहा था. 

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कुमिरमारी जाते हुए मरीचझापी द्वीप की एक झलक दिखती है. 

26 जनवरी को जब देश गणतंत्र दिवस मना रहा था, द्वीप के लोग खाने की कमी और जहरीले पानी से मर रहे थे.

वहां के इकलौते ट्यूबवेल में जहर मिला दिया गया. दर्जनों जानें उसी पानी से गईं. थके हुए लोग पानी की तलाश में वहां से भागने लगे, तभी शुरू हुआ, वो नरसंहार, जिसकी आजाद भारत में कोई मिसाल नहीं. ये 31 जनवरी थी. फायरिंग, रेप और धमकियों का सिलसिला मई तक चलता रहा. 
आखिरकार 18 मई 1979 को तत्कालीन सूचना मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने एलान किया कि मरीचझापी में अब कोई शरणार्थी नहीं. 

मरीचझापी में अब वाकई कुछ नहीं. समुद्री सफर के दौरान सूने द्वीप की तस्वीरें लेते हुए गोपाल की बात याद आती है- अधमरे लोगों को खाते हुए शेर आदमखोर हो गए थे. मरीचझापी में तब नींद चिड़िया की आवाज से नहीं, चीखों से खुलती थी. 

पूरा का पूरा द्वीप मुर्दा इतिहास की जिंदा तस्वीर बना हुआ! वो तस्वीर जो इतिहास के एलबम से सरककर कहीं खो चुकी है.

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